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मातंगिनी हाजरा (महिला क्रांतिकारी)

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मातंगिनी हाजरा एक असाधारण महिला थीं, जो एक भारतीय क्रांतिकारी और स्वतंत्रता कार्यकर्ता थीं। मातंगिनी हाजरा का जन्म पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में 19 अक्टूबर, 1870 ई. में हुआ था। वे एक ग़रीब किसान की बेटी थीं। उन दिनों लड़कियों को अधिक पढ़ाया नहीं जाता था, इसलिए मातंगिनी भी निरक्षर रह गईं। उनके पिता ने बहुत छोटी उम्र मे ही उनका विवाह साठ वर्ष के एक धनी वृद्ध के साथ कर दिया था। जब मातंगिनी मात्र अठारह वर्ष की थीं, तभी वह विधवा हो गईं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगीं। उसके पश्चात उन्होंने अपना सारा समय और ध्यान, अपने समुदाय के लोगों की मदद करने में लगाया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरुआत हुई, जब गांधी जी ने खुद देशवासियों में जागरूकता फैलाने और उन्हें आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करने हेतु इस क्षेत्र का दौरा किया था। मातंगिनी हाजरा कागाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं थी।

मातंगिनी हाजरा ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपनी निडरता और समर्पण के लिए जानी जाती रही।वह भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में शहीद होने वाली पहली महिला थीं। गांधीजी के विश्वासों के कारण, उन्हें "गाँधी बुढ़ी'" उपनाम मिला, जिसका अर्थ है "बूढ़ी गांधीवादी महिला।" सन 1930 के आंदोलन में जब उनके गाँव के कुछ युवकों ने भाग लिया तो मातंगिनी ने पहली बार स्वतंत्रता की चर्चा सुनी। वर्ष 1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुँचकर एक सभा हुई। वहाँ मातंगिनी ने सबके साथ स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली।



यह उनके जीवन का एक नया अध्याय था। वर्ष 1932 में, उन्होंने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और नमक सत्याग्रह में उनकी भूमिका के लिए उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया। हालाँकि उन्हें जल्द ही रिहा भी कर दिया गया था, लेकिन वे नमक पर लगाए गए शुल्क वापिस लेने की अपनी माँग को लेकर दृढ़ता से बनी रहीं। उन्हें छह माह के लिए फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया और बेहरामपुर जेल में डाल दिया गया। हाजरा को स्वतंत्रता का एक जोशीला समर्थक माना जाता है। वर्ष 1933 की एक घटना में, हाजरा चिलचिलाती गर्मी की एक दोपहर में अपने ज़िले में आयोजित एक स्वतंत्रता मार्च में हिस्सा ले रही थीं। इसका गंतव्य स्थान था राज्यपाल का महल।17 जनवरी, 1933 को ''करबन्दी आन्दोलन को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ था। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। तत्कालीन गर्वनर स्वयं अपने छज्जे में खड़े हुए, इस मार्च को तटस्थ रूप से देख रहे थे। मातंगिनी परेड के अग्र-दल में, स्वतंत्रता ध्वज को ऊँचा लहराते हुए आगे बढ़ रही थीं। जैसे ही राज्यपाल के छज्जे के करीब पहुँची, वे अचानक घेरे के बीच से, सैनिकों से बच कर, अपने बैनर को घुमाते हुए आगे बढ़ीं। इस दौरान वे चिल्लाती रहीं, "वापस जाओ, लाट साहिब”। उस पर मौका मिलते ही उन्होंने तामलुक की कचहरी पर, जो पुलिस के पहरे में थी, चुपचाप जाकर तिरंगा झंडा फहरा दिया। इस पर उन्हें इतनी मार पड़ी कि मुँह से खून निकलने लगा।वर्ष 1933 में गवर्नर को काला झंडा दिखाने पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया।उनका दृढ़ संकल्प कुछ इस प्रकार का था, कि वे कई बार कारावास होने के बावजूद अपनी लड़ाई में दृढ़ता से खड़ी रहीं। 1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण हैजा और चेचक की चपेट में आ गया। मातंगिनी अपनी जान की चिन्ता किये बिना राहत कार्य में जुटी रहीं।
इसके बाद सन 1942 में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान ही एक घटना घटी। 1942 में जब 'भारत छोड़ो आन्दोलन' ने जोर पकड़ा, तो मातंगिनी उसमें कूद पड़ीं। आठ सितम्बर को तामलुक में हुए एक प्रदर्शन में पुलिस की गोली से तीन स्वाधीनता सेनानी मारे गये। लोगों ने इसके विरोध में 29 सितम्बर को और भी बड़ी रैली निकालने का निश्चय किया। इसके लिये मातंगिनी ने गाँव-गाँव में घूमकर रैली के लिए 5,000 लोगों को तैयार किया। 29 सितम्बर, 1942 के दिन एक बड़ा जुलूस तामलुक की कचहरी और पुलिस लाइन पर क़ब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ा। मातंगिनी इसमें सबसे आगे रहना चाहती थीं। किंतु पुरुषों के रहते एक महिला को संकट में डालने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। जैसे ही जुलूस आगे बढ़ा, अंग्रेज़ सशस्त्र सेना ने बन्दूकें तान लीं और प्रदर्शनकारियों को रुक जाने का आदेश दिया। इससे जुलूस में कुछ खलबली मच गई और लोग बिखरने लगे। ठीक इसी समय जुलूस के बीच से निकलकर मातंगिनी हज़ारा सबसे आगे आ गईं और 5000 आज़ादी के मतवालों के बड़े जुलूस का नेतृत्व करने लगीं , जो 71 वर्षीय महिला मातंगिनी हाजरा की निर्भीकता और जोशीले स्वभाव का प्रमाण देता है।जुलूस में अधिकतर महिलाएँ थीं, जो अंग्रेज़ी शासन से तामलुक पुलिस थाने को वापिस लेना चाहती थीं। पुलिस ने जुलूस को रोकने की कोशिश की, और इस अफ़रा-तफ़री के बीच मातंगिनी हाजरा ने पुलिस से विरोधियों पर गोलियाँ न चलाने का आग्रह भी किया। परंतु उनकी गुहार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मातंगिनी हाजरा ने तिरंगा झंडा अपने हाथ में ले लिया। लोग उनकी ललकार सुनकर फिर से एकत्र हो गए। अंग्रेज़ी सेना ने चेतावनी दी और फिर गोली चला दी। पहली गोली मातंगिनी के पैर में लगी। 71 साल की मातंगिनी हाजरा ने पहली गोली लगते ही बोला 'वंदेमातरम'। पुलिस ने फिर हाथ पर भी गोली मारी, वो फिर बोलीं 'वंदेमातरम', लेकिन किसी तरह झंडे को संभाले रखा, गिरने नहीं दिया। वह लगातार वंदेमातरम बोलती रहीं, झंडा ऊंचा किए रहीं और थाने की तरफ बढ़ती रहीं। तब एक पुलिस आफिसर ने तीसरी गोली चलाई, सीधे उनके माथे पर। वो नीचे तो गिरीं, लेकिन तिरंगा जमीन पर नहीं गिरने दिया, अपने सीने पर रखा और जोर से फिर बोला- वंदे.. मातरम, भारत माता की जय। बदन पर गोलियां खाते रहने के बावजूद मातंगिनी ने लोगों को हिंसा के लिए भड़काने की कोशिश नहीं की। गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत को डिगने नहीं दिया। इस तरह एक नारी 'भारत माता' के चरणों मे शहीद हो गयीं।

मातंगिनी की हत्या से आक्रोशित लोगों ने सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन के अन्दर ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर दी, जिसने 21 महीने तक काम किया।भारत सरकार तथा राज्य सरकार ने वर्ष 1947 में स्वतंत्रता हासिल करने के पश्चात कोलकाता में हाजरा रोड के लंबे विस्तार सहित कई स्कूलों, कॉलोनियों और सड़कों का नाम हाजरा के नाम पर रखा।दिसम्बर, 1974 में भारत की प्रधानमन्त्री ने अपने प्रवास के समय तामलुक में मातंगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये।स्वतंत्र भारत में कोलकाता में स्थापित महिला की पहली मूर्ति वर्ष 1977 में हाजरा की थी। तामलुक में जहां उनकी हत्या हुई थी, उस स्थान पर अब एक मूर्ति खड़ी है। वर्ष 2002 में, भारत छोड़ो आंदोलन के साठ साल और तामलुक राष्ट्रीय सरकार के गठन की स्मृति में डाक टिकटों की एक श्रृंखला के हिस्से के रूप में, भारतीय डाक विभाग ने मातंगिनी हाजरा के चित्र के साथ पांच रुपये का डाक टिकट जारी किया गया।वर्ष 2015 में, इस प्रसिद्ध क्रांतिकारी के नाम पर तामलुक, पूर्वी मेदिनीपुर में शहीद मातंगिनी हाजरा गवर्नमेंट कॉलेज फॉर वुमेन की स्थापना भी की गई।

हाजरा की शहादत व्यर्थ नहीं गई। देश की आज़ादी के लिए उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया और इसकी ओर उनका यह योगदान भुलाया नहीं गया है।
मातंगिनी हाजरा एक सादे परिवेश से ताल्लुक रखने वाली उन महिलाओं में से थीं, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपनी छाप छोड़ गईं।
मातंगिनी की मौत के बाद तामलुक के लोग आक्रोशित हो गए। उनका सम्मान उस इलाके में उस वक्त गांधीजी से किसी मायने में कम नहीं था। सबने सोचा जब एक बूढ़ी महिला इतनी हिम्मत देश की आजादी के लिए दिखा सकती है, तो हम क्यों नहीं। लोगों ने सभी सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया और वहां खुद की सरकार घोषित कर दी। पांच साल पहले ही अपने इलाके को अंग्रेजों से आजाद घोषित कर दिया और दो साल बाद गांधीजी की अपील पर उन लोगों ने सरकारी दफ्तरों से कब्जा छोड़ा। महात्मा गांधी भी मातंगिनी का अदम्य साहस सुनकर हैरान थे।

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