:
visitors

Total: 690479

Today: 119

महंगाई का रोना: जीवन के बदलते मायने और समाधान

top-news

चारों तरफ महंगाई का रोना रोते तमाम लोग हर जगह मिल जाते हैं। कही कही तो बुजुर्ग अपने बचपन की बात बताने लगते हैं कि जब वो छोटे थे तो रुपए चार में एक किलो शुद्ध देशी घी मिल जाता था। सब्जी वाला कभी हरी मिर्च, धनिए की पत्ती, सोया के पैसे नहीं लेता था और अब तो हाय हाय सब में आग लग गई है। फ्री के मिलने की बात तो सपने की हो गई है। एक बार ऐसे ही कोई बहस चल रही थी एक थोड़ा कम उम्र के व्यक्ति ने कहा कि उस समय तनख्वाह भी सौ रुपए पूरे नहीं मिलते थे और अब लाखों में। फिर भी महंगाई का क्यों रोना। किसी भी अच्छे रेस्टोरेंट में सीट बुक करनी पड़ती है। हर महीने कार और दुपहिया वाहन के नए नए मॉडल आ रहे है और उनको लेने के लिए भी वेटिंग चल रही है। किसी भी मॉल में भीड़ ही भीड़ होती है। अगर पहले एक-दो रुपए की मूवी की टिकट मिलती थी तब भी लाइन लगती थी और अब जब रुपए पांच सौ की तब भी - तो महंगाई कहा है? बात में दम तों था, दिखाई तो यही देता है। तो क्या हुआ क्यों किसी को महंगाई भयानक रूप से लगती है और कुछ को बिल्कुल ही नहीं? क्या आमदनी के स्तर में बहुत अंतराल आ गया है? या रहने के स्तर में बहुत सुधार आ गया है जिस से खर्च बढ़ गया है। कमाई हो रही है लेकिन सभी खर्च हो जाते है रोज़ के खर्च निबटाने में और पूंजी बच नहीं रही है।इस से सब परेशान हैं। सोचने की बात है कि कैसे इस हालात में भी खर्चे पर नियंत्रण रख कर गुजारा किया जा सके। फिर त्यौहारों के खर्चे, अभी दिवाली गई, लोगों ने कितने पटाखे चलाए।कही से तो आए पैसे। रोज़ के रोने से अच्छा है अपने ऊपर नियंत्रण रख कर जीवन की गाड़ी चलाएं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *