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कोविड के बाद युवाओं की समस्याएँ

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कोविड-19

कोविड-19 महामारी केवल स्वास्थ्य समस्याओं को ही लेकर नहीं आयी बल्कि इसका पूरे विश्व पर वित्तीय, शारीरिक, भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। महामारी ने भारत के युवाओं को बुरी तरह प्रभावित किया है। नौकरी छूटना, वेतन में कटौती तथा राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण बाज़ारों की हालत चिन्ताजनक हो गयी।बाज़ारों से, माल्स से ख़रीददार ग़ायब हो गए। छोटी बड़ी फ़ैक्टरियों बंद हो गयी।घरों के अंदर चलने वाले कुटीर उद्योग माल के आगत के अभाव और फिर बिकवाली समाप्त होने से ठप पड गयी। इन सभी संस्थानों में कार्य करने वाले घर के अंदर बंद हो गए। कुछ उद्योगों ने तो जहां तक बन सका कारीगरों को आर्थिक सहायता और वेतन दिया पर ज़्यादा दिन तक ये भी नहीं चला। युवाओं की नौकरियां चली गयी या वेतन में कटौती प्रारंभ हो गयी। वेतन वृद्धि की तो बात ही सभी भूल गए।

भर्ती लगभग रुक गयी और छोटे, मध्यम व्यवसाय बंद हो गए। कुछ ने अपने निजी प्रयास से कुछ सप्लाई का कार्य प्रारंभ किया क्योंकि घरों में रोज़मर्रा लगने वाले समान को कोई इतना तो इकट्ठा कर के रख नहीं सकता था की वो महीनों चलते ही रहें। फिर कुछ सामान तो रोज़ के रोज़ ही लगते है। इन सेवाओं के बदले बहुत से व्यवसाइयों ने मुँह माँगा दाम लगाना शुरू कर दिया। महगाईं के परिणामस्वरूप युवाओं ने जो थोड़ी बहुत जमा पूँजी इकट्ठी की थी वो तेज़ी से ख़त्म होती गयी।आय के साधन तो कम हो ही गये। दूसरी तरफ़ महंगाई, दो तरफ़ा मार युवाओं को झेलनी पड़ी। वैसे देखें तो पिछले कुछ वर्षों में खाने से लेकर ईंधन तक, ताजे फल और किराने के सामानों तक हर चीज की कीमत में इज़ाफ़ा हुआ है। प्रत्येक उत्पाद और सभी सेवाएँ महंगी हो गयी हैं। अब घरों के आवश्यक खर्चो, स्कूल की फ़ीस, टैक्स और अन्य मासिक खर्चों का भुगतान करने के बाद युवा वर्ग के पास पैसा बचाने की गुंजाइश ही नहीं बची।वेतन तो बढ़ा नहीं खर्चे बढ़ते गये। राष्ट्रीय लॉकडाउन लगने के कुछ समय बाद कंपनियों ने एक नया फ़ार्मूला वर्क फ्रॉम होम (WFH) प्रारम्भ किया।

राष्ट्रीय लॉकडाउन

सर्वप्रथम आई टी सेक्टर की कम्पनियों ने शुरू किया और यह सिस्टम धीरे धीरे सामान्य हो गया। अभी भी कुछ कंपनियां हैं जो आज तक भी अपने सभी कर्मचारियों को हाइब्रिड मोड में या स्थायी रूप से घर से काम करा रही हैं। कुछ ने 50% तक को कार्य पर बुलाया तो कुछ सप्ताह में दो दिन या तीन दिन कर्मचारियों को ऑफिस बुलाते हैं। लंबे समय से घर में रहना, घर से ही सब करना, बाहर कहीं जाना नहीं, घर का सारी व्यवस्था इन को केन्द्र में रख कर बन गयी है। युवाओं को भी घर से प्राप्त सुविधाओं की आदत हो गयी है या ये भी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की ये घर की धुरी बन गये हैं जहां हमेशा उनका घर में रहना अब आवश्यक सा हो गया है। अब उन्हें कार्यालय जाना चाहे दो दिन का ही पूरे हफ़्ते में हो, उनके लिए परेशानी का सबब बन गया है उन्हें अब एडजस्ट करने में समस्या हो रही है।कुछ तो अपने कार्य के शहर से दूर अपने घर पर ही रह कर कार्य करने के आदि हो गये हैं। अब उन्हें निश्चित कार्य के समय में बधना अच्छा नहीं लगता।

ऑफिस रूटीन में वापस आना बहुत मुश्किल लग रहा है। यहाँ इसका भी खुलासा करना होगा की युवाओं में शारीरिक श्रम तो लगभग ख़त्म ही हो गयी है। इसका असर अब उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा है। रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है। बीमारी आती ही रहती है।  कम्पनियों को तो सहूलियत हो गई अब ना तो उन्हें फ्री ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था करनी पड़ती है, ना ही कर्मचारियों के नाश्ते ख़ाने का कोई खर्च। बिजली, पानी, सिक्योरिट स्टाफ सब बचत ही बचत। बहुत से छोटी और बड़ी कंपनियों ने तो जो बिल्डिंग किराए पर इन ऑफिसों को चलाने के लिए लिया था वो भी छोड़ दिया है।युवाओं को इन सब बेनिफ़िट्स का नुक़सान तो हुआ ही। कम्पनियों ने युवा वर्ग को जो उनके बिज़नेस की रीढ़ की हड्डी है को कही भी कॉम्पन्सेट नहीं किया। लॉक डाउन के बाद युवाओं ने अन्य बहुत से कारणों से अपने व्यवसाय को बदल दिया। नौकरी चली गई लॉक डाउन में तो फिर मिली ही नहीं। बाज़ार अभी तक उठा नहीं।नौकरियों कम हो गई। बिज़नेस ओनर्स भी समय के अनुसार अपने कार्य प्रणाली को बदलने में लग गये। कार्य करने वाले लोगो को कम करने लगे। प्रयास कर के ऑटोमाइज़ेशन की तरफ़ जाने लगे। सरकार ने डिजिटल और ऑटोमाइज़ेशन को विशिष्ट कारणों से प्राथमिकता देना प्रारम्भ कर दिया। जिस कार्य को करने में हाथों की ज़रूरत होती थी सभी मशीनों से होने लगे। विश्व में कथित सबसे ज़्यादा जन संख्या वाला देश जिसकी लगभग आधी आबादी युवा है, कहाँ जाये? सभी विकास परिस्थिति जन्य और वास्तविक समाज में हो रहे बदलाव को ध्यान में रख कर करने से परिणाम जल्दी असर डालता है। किसी विशेष प्रथा या टेक्नोलॉजी का अंधाधुंध प्रयोग समाज के अच्छे से बीने गये ताने बाने को नष्ट कर देता है और युवा उसके पहले शिकार होते हैं। घर तो चलाना है, परिवार को सपोर्ट करना है तो आमदनी तो चाहिए और ऐसे समय पर थोड़ा भी विचलित युवा मन का ग़लत हाथों में जाने की गुंजाइश बन जाती है।

यह विशुद्ध रूप से सामाजिक ज्ञान का विषय बन जाता है और इस पर शोध की अत्यंत आवश्यकता है जिस से युवाओं पर पड रहे दुष्प्रभाव को कम करने की दूरगामी योजना बनायी जा सके। कहीं कहीं से ये भी सुनने में आता है कि लॉकडाउन के बाद युवाओं में उच्चशृंखलता बढ़ी है। नौकरी छूटने और आय के वैकल्पिक स्रोत तक ना पहुँचना मानसिक द्वन्द और परेशानी खड़ी करती है और ऐसे में युवाओं के व्यवहार में हो रहे स्पष्ट बदलाव को परिलक्षित कर रहा है।ख़ाली समय में युवा टी वी की तरफ़ भी आकर्षित हुआ है।इस समय बहुत से प्रोग्राम नकारात्मक और हिंसक विषयों को लेकर बने है इनका दुष्प्रभाव भी इनके मस्तिष्क पर स्पष्ट दिखायी दे रहा है। इस दौरान डिजिटल या ऑनलाइन शिक्षा का प्रचलन भी तेज़ी से हुआ। जो परिवार समर्थ थे उन्होंने तो कैसे भी उन उपकरणों की व्यवस्था किसी भी प्रकार कर लिया परन्तु बहुत से युवा इन से वंचित रह गये क्योंकि उनकी प्राथमिकता घर चलाना रहा।इसके कारण भी युवा शक्ति को अपने कार्य से या फिर पढ़ाई से विदा लेना पड़ा। कार्य से इस लिए की बहुत से कार्यों के लिए भी उपकरणों को नौकरी प्राप्त करने की पहली शर्त बना दी गई थी। इन सब कारणों से युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य में निश्चित रूप से बदलाव आया है।जब जीवनशैली ठीक नहीं है या कुछ खास कार्य नहीं कर पा रहे हैं जो एक उम्र में करनी चाहिए तो ये जीवनशैली विकारों को विकसित करती है। इस प्रकार अब पोस्ट कोविड समय में बहुत सावधानी से विषयों का अध्ययन कर के इनके उपाय ढूँढने पड़ेंगे जिसे उपलब्ध युवा वर्ग का समुचित उपयोग देश के विकास में लगाया जा सके।

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