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मन क्या है?

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बहुत ही सूक्ष्म सवाल है जिसे जानना बहुत ही रोचक और जरुरी है। मन हमारी आत्मा का ही एक रूप है, एक शक्ति, जो शरीर को चलाता है।मन शरीर की क्रियाओं को आत्मा से जोड़ता है। मन की शक्ति अकल्पनीय है।मन या आत्मा एक विचार शक्ति है जो कर्म संस्कार और क्रियाशीलता को निर्धारित करता है और हमारे कर्म या क्रियाशीलता ही भाग्य का निर्धारण करते हैं।मन, आत्मा को पवित्र , शुद्ध व शान्त रख कर विचारो को शुद्ध शान्त और पवित्र बनाता है और कर्म भी पवित्र हो जाता है और उसका कर्मफल भी पवित्र हो जाता है। मन की व्याख्या अनेक विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। मन को मस्तिष्क की मूल शक्ति मानते हैं। मन, उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाता है। मन, मना करता है कुछ नया करने के लिए और उकसाता भी है सफलता प्राप्त करने के लिए। मन पर वश किसी का नहीं है।मन मोक्षदायिनी ऊर्जा है। मन ही ऊर्जा रहित बनाकर अवसाद ग्रस्त बना देता है।मन मिलाते-मिलते, तन मिट्टी में मिल जाता है। मन की शान्ति के लिए मन्त्र जपते हैं, अज़ान करते हैं, योग-प्राणायाम, ध्यान ये सारे कर्म मन को सन्तुलित करने के प्रयास हैं। कहते हैं मन को समझने का विज्ञान ही वेदांत है। वेद में आदि से अंत तक शिवरूपी पञ्च महाभूतों की प्रार्थना है। कहा गया है कि मन मरा तो सब कुछ यूं ही धरा रह जाता है।

मन को सबसे अधिक चंचल बताया गया है। जब भी कुछ देखते हैं या सुनते हैं तो मन उस बारे में सोचने लगता है। अगले ही पल कुछ नया दिख जाने पर या नई घटना होने पर मन तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया बदल देता है और नई घटना के बारे में सोचने लगता है। एक दिन में ही मन में अनगिनत विचार आते जाते रहते हैं और मन उन विचारों में उलझा रहता है। मन संकल्प करता है: मनः शिवसङ्कल्पमस्तु। मन को मस्तिष्क के साथ जोड़ा नहीं जा सकता। मस्तिष्क व्यापक और अपार धनागार है।मन, मस्तिष्क के भीतर पलता हुआ कीड़ा है जो सीपियों में पलता है। सीपियों से मोती निकलते हैं।मन मोती हो सकता है, परन्तु चिन्तन का समग्र केन्द्र नहीं, क्योंकि मन, भ्रम और भटकाव है। मन मनुष्यता की शालीनता है, मन मनुष्य को मनुष्येत्तर बनाता है और मन लौकिक और अलौकिक द्वार को खोलता है।यह सब तो है, लेकिन यही सब नहीं भी है।समुद्र में सीप, सीप में पानी, पानी में पलता, सचल जीवन और वही जीवन बदलता है मोती में। मन, सोचना भी नहीं है सोचना मन की एक प्रक्रिया हो सकती है। सोच भटकाव है और सोच निर्माण का दीप भी। लेकिन उसे भी मन से नहीं जोड़ सकते हैं।।मन तो भ्रम, विभ्रम, वेग, आवेग, आरोहण, अवरोहण, श्रम, विश्रम, शान्त, अशान्त और जीवन की नियति का स्थायी भाव अथवा संचारी-भाव सभी कुछ हो सकता है अथवा हो सकता है कि वह कुछ भी न हो।मन रेगिस्तान और मधु-मरीचिका के बीच पालने में झूलता हुआ जीवन-सुरभि है।मन ही सबसे बड़ा मित्र है और सबसे बड़ा दुश्मन भी है।मन ही मनुष्यों का बन्धन और मोक्ष है।मन बेचैन है मन अशान्त है।मन दुःखी है मन बेक़ाबू है।हर कोई मन से अनजान है इसलिए मन से परेशान है।जो कोई मन को जान गया उसके लिए युद्ध में भी विश्राम है। मन को समझने को ही वेदान्त कहते हैं।मन को समझें, मन को अपना मित्र बनाए मानसिक ताकत बढ़ाएँ।परन्तु मन में स्थिरता कैसे लाएँ।क्या करें जब मन विचारों के इर्द गिर्द घूमता रहता हो।

सच में मन तो राजा है जिसने सबको अपना गुलाम बना कर रखा है। मन से तन खराब होता है। मन ही हमें हर जतन या प्रयास के लिए प्रेरित करता है। मन है कि मानता नहीं है - और जीते जी मन ही मरवा देता है।मन, मजबूत जीवन बीज के समान है। जिस तरह एक बीज को पानी, खाद से सींचा जाता है, उसी प्रकार मन को भी अपनापन, प्यार, आत्म विश्वास और भरोसे के माध्यम से बनाया जाता है।मन वो घोड़ा है जिसकी लगाम हाथ से एक बार छूट जाए तो वापिस हाथ नहीं आती, मन को अगर समझ गए या मन को समझा लिया फिर तो संसार में रहते हुए भी साधु के समान विचार हो जाते हैं।।इच्छाओं का दायरा कम होता जायेगा और मन को समझना आसान हो जाएगा। विचारों का समूह ही मन है। क्योंकि मन का एक रूप विचार है इसलिए विचारों को पढ़कर सामने वाले के मन को समझना आसान हो जाता है। मन ही ग्रह दशा से प्रभावित होकर सही गलत निर्णय लेता है जिसका परिणाम मनुष्य को सहना पड़ता है।भगवान श्री कृष्ण ने मन को लेकर महाभारत में उपदेश दिया था।भगवान श्री कृष्ण ने मन को लेकर अर्जुन से कहा था कि “शरीर और आत्मा दोनों अलग-अलग रूप होते हैं।मन आत्मा की परवाह किए बिना इधर उधर भागता रहता है। अर्थात सांसारिक भोग विषयों के प्रति आकर्षित होता रहता है।ऐसी स्थिति में जब मन इधर-उधर भागता रहता है सांसारिक भोग विषयों के प्रति आकर्षित होता रहता है तो इस स्थिति में मनुष्य मन के अधीन रहता है। मन ऐसी स्थिति में मनुष्य का स्वामी बना रहता है जो मनुष्य को अपने इशारे पर नचाता रहता है।व्यक्ति उसके अनुसार ही चलता रहता है।”

मानव शरीर में मन, सबसे शक्तिशाली कारक है। पूरे शरीर को संचालित करने वाला मन ही है। मन में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित हैं। विद्युत की गति से भी तेज गति वाला व दसों इंद्रियों का राजा, मन इतनी तीव्र गति से इधर-उधर दौड़ता है कि इसको एक स्थान पर रोकना अत्यंत दुष्कर कार्य है।मन समस्त ज्ञानेंद्रियों के साथ अलग-अलग व एक साथ रहकर पूरे शरीर को संचालित करता रहता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने इस मन के सम्बन्ध में प्रश्न किया कि ‘प्रभु यह मन तो बड़ा चंचल है, इसे वश में करना तो वायु को वश में करने के समान है।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा कि “वास्तव में मन को वश में किया जाना तो अत्यंत दुष्कर कार्य है, परंतु अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जाना संभव है।” महर्षि पतंजलि ने भी कहा है कि “अभ्यास और वैराग्य से इस मन को वश में किया जा सकता है।” मन ही जीव का बन्धन कारक भी है और यही जीव का उद्धारक भी है। मन में अपार शक्तियां निहित हैं, परंतु अविद्या से उत्पन्न अज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण मन, जगत के प्रपंच में, इंद्रियों के आकर्षण और सांसारिक विषयों में पड़ जाता है और जगत से परे परा जगत को नहीं जान पाता है । ऐसा मन, जगत में फंसाने
वाला, जीव को बन्धन में डालने वाला शत्रुवत हो जाता है। मन के अन्दर पूर्ण क्षमता है कि वह जगत के उस पार, यानी दिव्य जगत के रहस्यों को जानकर ज्ञान से परिपूर्ण हो जाए। तुच्छ विचारों को त्यागकर सद्विचारों को अंगीकार कर सभी इंद्रियों को वश में कर ले, ऐसे समय यही मन मित्रवत हो जाता है। मन को मित्रवत रखना ही श्रेयष्कर होता है।सत्य को जानने के लिए मन को सदैव सद्विचारों में लगाए रखना चाहिए। रहस्यों को जानने के लिए और ईश्वर की अनुभूति करने के लिए मन रूपी दर्पण के मैल को सदैव साफ करते रहना चाहिए। तभी मन रूपी दर्पण में परमात्मा की
झलक दिखाई पड़ने लगेगी और तब मानव मन शान्ति व आनन्द से परिपूर्ण हो पाएगा।

मन दिमाग की सुक्ष्म शक्ति है।इसे सकारात्मक सोच की आवश्यकता होती है।सकारात्मक विचार ही मन का भोजन है और अगर इसे सही दिशा मिल जाये तो असम्भव बातें भी सम्भव बना देता है|इसे नियंत्रित करना मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं है।तभी तो कहते हैं कि ''मन के जीते जीत है, मन के हारे हार” ओशो ने भी मन के बारे में कहा कि ‘हम जो भी करते हैं, वह मन का पोषण है। मन को हम बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, हमारा संग्रह, सब हमारे मन को मजबूत और शक्तिशाली करने के लिए है। बूढ़ा आदमी कहता है, मुझे सत्तर साल का अनुभव है। मतलब? उनके पास सत्तर साल पुराना मजबूत मन है। और जैसे शराब पुरानी अच्छी होती है, लोग सोचते हैं, पुराना मन भी अच्छा होता है। मन जितना पुराना होता है उतना ही पक्का होता रहता है । यही असली भवसागर है जिसे पार करना है।जीवन ऊर्जा तो एक ही है। वही ऊर्जा जब विचारों में प्रवाहित होती है तो मन कहलाती है और भावों की ओर प्रवाहित होती है तो हृदय कहलाती है।ध्यान में जब अंतर्मुखी होते है तो पहले तो शरीर का तल, फिर मन, आगे भाव का तल और इन सब के पार है आत्मा, चैतन्य, वास्तविक स्वरूप सम्मुख आता है। जब एक एक तल पार
करते हैं तो ऐसे क्षण भी आते हैं जब एक भी विचार मन के अन्दर नहीं होते हैं।यदि सुविचारों के साथ आगे बढें तो मन के द्वारा जीवन में सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होते हैं। जेम्स एलेन ने एक पुस्तक में कहा भी है कि “अच्छे विचार बीजों से सकारात्मक और स्वास्थ्यप्रद फल सामने आते हैं। इसी तरह बुरे विचार बीजों से नकारात्मक और घातक फल वहन करना पड़ता है।” वैसे तो मन भी शरीर का एक अंग ही है जो आत्मा से अलग है, बहुत बार ऐसा अनुभव होता है कि जब ध्यान में होते हैं तो मन उस समय कुछ और सोचता है पर ज्ञान उस मन को भी नियंत्रित करना चाहता है।जब उस मूल ज्ञान पर ध्यान जाएगा तो मन को वश में करना थोड़ा सम्भव हो जाता है । सामान्य भाषा में मन शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का
कार्य करता है। मन को नियंत्रण करने के लिए भावना को नियंत्रण में करना बहुत जरूरी है । अगर भावना को काबू करना सीख लिया तो दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं है ।अगर भावना काबू में आ जाए तो मन, खुद बा खुद शान्त हो जाएगा। ध्यान से मन को शान्त रखने में सहायता होती है। मन शान्त करने के लिए मन को जानना बहुत जरूरी है। इतने के बाद भी मन वास्तव में क्या होता है यह तो पूरी तरह से बताना सम्भव नहीं है।मन व्यक्तित्व की ऊर्जा है। मन जैसा होता है व्यक्तित्व भी उसी तरह प्रदर्शित होता है किसी भी काम को करने के लिए जब तक मन साथ ना दे तब
तक उस काम को बेहतर तरीके से कर पाना सम्भव नहीं होता है। मन वह शक्ति है जो जीवन को चलाने के लिए बहुत जरूरी है, बस उस शक्ति पर नियंत्रण हासिल करना आवश्यक है। मन तीन अलग अलग प्रकार के होते हैं।
1- चेतन मन,
2- अवचेतन मन,
3 - अचेतन मन (बेहोश या बेसुध मन)
इन तीनों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली अवचेतन मन होता है। अवचेतन मन का पूर्ण इस्तेमाल आजतक कोई नहीं कर पाया है।फ्रायड का कहना है कि “मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10 प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90 फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है।” इसी तरह युंग ने भी कहा था, “चेतन

मन तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अवचेतन मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।” यहाँ चेतन मन बाहर दिखायी देने वाला हिस्सा है और अंदर छुपा हुआ हिस्सा अवचेतन मन है।कामयाबी अवचेतन मन का ज़्यादा इस्तेमाल करने से मिलती है। जब कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं तब एक ही मन सक्रिय रहता है। जब निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी एक ही मन होता है । हालांकि तब लगता है कि दो प्रकार के मन हैं, जिसमें से एक ने हाँ कहा है तो दूसरे ने नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है।
1- चेतन मन वह है जिसे जानते हैं। इसके आधार पर सारे काम करते हैं। यह मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या सन्देह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो मन को कठपुतली की तरह नचाती है। जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।
2- अवचेतन मन आधा जाग रहा होता है और आधा सो रहा होता है। यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता।जाग रहे हैं, तो फैसला कर सकते हैं कि क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहीं लगते हैं ।मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएँ पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही वो याद नहीं रहें परन्तु वे नष्ट नहीं होतीं हैं ।
3- फ्रायड का मानना था कि ‘अचेतन मन तो एक कबाड़ ख़ाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पड़ी होती हैं’ परन्तु भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी अचेतन मन में ही जाती हैं।अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। अवचेतन या चेतन मन जब इन विचारों में से किसी की मांग करता है तब अचेतन मन उसे उन्हें पहुँचा देता है।निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है जो व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। अन्तःकरण के चार भाग में से एक भाग मन है। ये चार भाग हैं: मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। यह सूक्ष्म शरीर के भाग हैं। मन को दो तरह से और समझा जा सकता है। द्रव्य मन (हार्डवेयर) और भाव मन (सॉफ्टवेयर)। दोनों मन को चित्त (कॉन्ससियसनेस्स) से ही ऊर्जा प्राप्त होती है। मन का काम है सुख दुःख का अनुभव करना और उनपर विचार करना। मन को आभास इन्द्रियों व पूर्व के अनुभव और
संस्कारों से मिलता है जो बुद्धि में सुरक्षित हैं। मन विचार करके अपने भावों को बुद्धि के पास निर्णय के लिए भेजता है। भाव और विचार मन में निरन्तर चलते है। निद्रा में भी इसलिए स्वप्न दिखायी देते हैं।मन को नियंत्रण में लाने के लिए सबसे पहले सोच को साकरात्मक रखना होता है क्योंकि जब साकारात्मक सोच होती है तो मन में अच्छे विचार आते हैं जिस से नाकारात्मक चीजों दूर हो जाती है और मन शान्त और नियंत्रण में रहता है।भागदौड़ भरे जीवन में मानसिक शान्ति प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है।क्योंकि जीवन की आपाधापी के कारण अधिकतर लोगों का मन अशान्त रहता है। मन की शान्ति के लिए सकारात्मक सोच होना आवश्यक है। मन की तीन शक्तियाँ हैं बुद्धि, संकल्प और स्मृति । वे शरीर का संचालन मन के द्वारा निर्देशित करते हैं । महान दार्शनिक थॉमस एक्विनो के अनुसार “शरीर के प्रत्येक भाग में मन मौजूद है। बुद्धि प्रत्येक व्यक्ति के मन का भाग है।” बुद्धि तो जोड़ना-घटाना जानती है, बुद्धि संबंध स्थापित करना जानती है, वो उपाय जानती है और तर्क जानती है।परन्तु मन वो है जिसमें संकल्प-विकल्प उठते- गिरते रहते हैं, जिसमें आकर्षण-विकर्षण आते-जाते रहते हैं, जहाँ कभी कुछ है और कभी कुछ नहीं है और कभी कुछ और है।

मन दूसरों की भावना को समझता है।बुद्धि राय देती है ओर विवेक उसे जाँच परख सही गलत बताता है।परन्तु चंचल मन कैसे माने उसकी बात, अगर मन मान ले तो झगड़ा ही क्या, कुछ भी तो यहाँ नहीं आता है। आत्मा की अंतर्निहित विशेषता, शान्ति, सहयोग, परोपकार, आनंद, कल्याण, सच्चाई, पवित्रता की शक्तियों को जागृति और प्रज्वलित रखना है जिस से मन विचलित होकर भी भटके नहीं। कुछ मानते हैं कि मन, आत्मा के घर को कहते है।इस घर में अगर मकान मालिक के स्थान पर कोई दूसरा आ बैठता है तो ये विचलित हो उठता है पूरा शरीर विरोध प्रदर्शित करने लगता है।आधुनिक भाषा में कहें तो मन एक प्रिंटर की तरह है।जहाँ पर आस - पास होने वाली घटनाओं, विचार आदि संग्रहित होते रहते हैं। जो चीज हमारे अन्दर भरा होता है वह प्रिंटर की तरह बाहर आ जाता है । कभी कभी आत्मा को भी मन का पर्यायी बताया जाता है परन्तु आत्मा, परमात्मा, जीवात्मा, पुनर्जन्म, ऐसे ही अनेकों शब्द आज के युग में अध्यात्म के पर्यायी बने हुए हैं। श्रीकृष्ण गीता के अध्याय 15, श्लोक 11 में अर्जुन से कहते हैं।
“यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः”

जिन्होंने अपना मन शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य कोशिश करने पर भी आत्मा को नहीं जान पाते।मन ,आत्मा के उपर ही सवार है ध्यान से देखें मन दिखेगा तो नहीं पर समझ तो आ ही सकता है।

ईश्वर कहते हैं, ''मन मुझ में लगाओ, अपना काम लगन और मेहनत से करो फल की आशा किये बिना करते रहो तो दुःखी नहीं होगे। मन को नियंत्रित करने के लिये यह सोचे कि, ''जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है ,जो होगा अच्छा ही होगा।”मन का स्वरूप वैसा है जैसा भगवान ने बनाया है। परन्तु जैसे जैसे बड़े होते हैं दुनियादारी सिखाई जाती है। क्या करना है कैसे करना है क्या नहीं करना, क्यूँ नहीं करना। ये सब व्यावहारिक बातें दुनिया में ही आकर सीखते हैं। इन सब बातों में, मन खोता जाता है।मन चाहता है ये खाएँ - वो खाएँ पर बताया गया है कि ये सेहत के लिए ख़राब है, वो दाँतों को नुक़सान करेगा। मन बेचारे को चुप रहना पड़ता है।वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो मन का कोई अर्थ नहीं है लेकिन सामान्यतः अगर इसे सोचें तो यह केवल दिमाग की भावनात्मक सोच से है, विचार से है, जो किसी तथ्य को दो पहलुओं पर ले जाकर छोड़ देती है। इसमें या तो हाँ या फिर ना जिसमें व्यक्ति या तो बहुत भावुक हो जाता है या फिर बहुत प्रफ्फुलित हो जाता है।वेदों के अनुसार मन आत्मा की ही शक्ति है, उससे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है।आत्मा समस्त ज्ञान और विश्वास का समुच्चय है। आत्मा आंतरिक व्यक्तित्व की संपूर्ण गतिविधि है। आत्मा इस
बात का प्रतिनिधित्व करती है की अन्दर से कौन हैं, यह विचारों (दिमाग) और भावनाओं (हृदय) का योग है।अक्सर मन के विषय में बात करते है कि मेरा मन किया तो ऐसा किया और मेरा मन किया वैसा किया जैसे अनेकों वाक्यों से मन के विषय में शब्द, मन बोलते रहते है। जो भी काम करते हैं या आस पास की घटनाओं के बारे देखकर या सुनकर जो प्रतिक्रिया देते हैं उसमें मन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आयुर्वेद में मन को भी शरीर का एक अंग माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार मन ज्ञानेद्रियों और आत्मा को आपस में जोड़ने वाली कड़ी है। जिसकी सहायता से ज्ञान
मिलता है। इसलिए आयुर्वेद में मन को नियंत्रित करने पर ज्यादा जोर दिया गया है। आयुर्वेद के अनुसार अपने मन पर नियंत्रण कर लेना ही योग की स्थिति है। मन पर नियंत्रण होने का सीधा तात्पर्य है इंद्रियों पर नियंत्रण।शरीर में मन के निवास स्थान को लेकर कई धारणाएँ प्रचलित हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथों में मन का निवास स्थान ह्रदय माना गया है। वहीं योग ग्रंथों में ह्रदय और मस्तिष्क दोनों को मन का निवास स्थान माना गया है।ज्ञान इन्द्रियों (आंख, कान आदि)  द्वारा जो कुछ भी देखते, सुनते या महसूस करते हैं उस विषय की जानकारी मन के द्वारा बुद्धि (मस्तिष्क) तक पहुँचती है। आयुर्वेद के अनुसार मन का प्रमुख कार्य ज्ञानेद्रियों द्वारा प्राप्त किए विषयों के ज्ञान को अहंकार, बुद्धि आदि तक पहुँचाना है। इसके बाद बुद्धि इस बारे में निर्णय लेती है कि आगे क्या करना है और क्या नहीं?  जो भी निर्णय बुद्धि द्वारा लिया जाता है वो काम कर्म इन्द्रियां करती हैं।आयुर्वेद में बताया गया है की मन में तीन गुण पाए जाते हैं। जो निम्नलिखित  हैं :  
सत्व (सात्विक)
रज  (राजसिक)
तम  (तामसिक) 
ये तीनों गुण सभी मनुष्यों में पाए जाते हैं। इन्हीं गुणों से व्यक्तित्व का पता चलता है। किसी में कोई एक गुण अधिक पाया जाता है तो किसी में कोई दूसरा।   सत्व (सात्विक): सात्विक प्रकृति के व्यक्तियों के व्यवहार में पवित्रता ज्यादा होती है। ऐसे शाकाहारी भोजन करते हैं, किसी को शारीरिक या मानसिक क्षति नहीं पहुंचाते हैं। इनकी जीवनशैली बहुत ही सामान्य, सादगी भरी और अनोखी होती है। ये दिखावे और आडम्बर में विश्वास नहीं रखते हैं। दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत होते हैं।
रज (राजसिक): राजसिक प्रकृति वाले ज्यादा गुस्सैल और चंचल स्वभाव के होते हैं। इनके अंदर लालच, ईर्ष्या, क्रोध, घमंड आदि की भावना ज्यादा होती है।ये भोगविलास युक्त जीवन जीना ज्यादा पसंद करते हैं और हमेशा अधिक से अधिक पाने की भूख रहती है।ये शाकाहारी और माँसाहारी दोनों का सेवन करते हैं। वर्तमान समय में अधिकांश राजसिक प्रकृति वाला ही जीवन जीते हैं।
तम(तामसिक): जिनमें भोग विलास की भावना हावी हो जाती है और वे सही गलत की परवाह किये बिना अपने मन के अनुसार कार्य करने लगते हैं। ये शराब, धूम्रपान, मांसाहार आदि का अधिक मात्रा में सेवन करते हैं। स्वार्थ के लिए दूसरे को शारीरिक या मानसिक रूप से हानि पहुंचाने में हिचकते नहीं हैं। जिस तरह शारीरिक गुणों का प्रभाव मन पर पड़ता है ठीक उसी तरह मानसिक
गुणों का प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। इसीलिए आयुर्वेद में किसी भी रोग की चिकित्सा करते समय रोगी के शरीर के साथ साथ उसके मन की स्थिति की भी जांच की जाती है। इसके तहत आयुर्वेद में रोगों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा गया है।
मानसिक रोग
शारीरिक रोग

हालांकि ये बात स्पष्ट रूप से बताई गई है कि दोनों ही प्रकार के रोगों में मन की अहम भूमिका रहती है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर और मन का आपस में गहरा संबंध है। इसलिए किसी भी तरह के शारीरिक रोग में मन को स्वस्थ रखने पर ज्यादा जोर दिया जाता है। अक्सर कहते हैं कि मन चंचल है, मन पर भरोसा मत करो। कोई कहता है, मन इतना चंचल है की ध्यान नहीं कर सकते, शान्ति से बैठ नहीं सकते। मन की चंचलता की इतनी व्याख्या की गई है बिना विचारे कि अगर प्रकृति ने मन को चंचल बनाया है तो इसका कुछ तो कारण होगा क्योंकि ब्रह्मांड में कुछ ऐसा नहीं है जिसकी कोई उपयोगिता नहीं हो। ओशो का दृष्टिकोण इसी की पुष्टि करता है। ओशो कहते हैं कि “मन की चंचलता से दुःखी मत होइए, न ही उसकी निंदा करिए। दरअसल मन की चंचलता के कारण ही आप निरंतर खोजते रहते हैं। आप कितना ही कुछ पा लें, मन कहता है, कुछ और चाहिए, कुछ और। आगे चलो। मन चंचल न होता तो लोभी लोभ पर, मोही मोह पर, कामी काम पर ही सदा के लिए ठहर जाता। फिर तो आत्मा तक उठने का कोई मार्ग ही नहीं था। लेकिन मन चंचल है इसलिए कहीं टिकने नहीं देता और सदा आगे बढ़ाता रहता है।”

मन के चंचलता के पीछे एक बड़ा रहस्य सूत्र भी है और वो यह है कि “ मन इसलिए चंचल है की जब तक मन के योग्य अन्तिम विश्राम ना आ जाये तब तक वह चैन से बैठने नहीं देगा। जैसे नदी सागर में जा कर ही विश्राम लेती है वैसे ही मन भी केवल आत्मा में जाकर ही अपनी चंचलता छोड़ता है।”

————अरुण कुमार सिन्हा
चिंतक एवं विचारक

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