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उज्जैन यात्रा: एक रिपोर्ट

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उज्जैन


भारत के ऐतिहासिक शहर उज्जैन, मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य में क्षिप्रा नदी के किनारे बसी एक प्राचीन नगरी का एक व्यापक परिचय प्रस्तुत करने का यह प्रयास है। यात्रा का उद्देश्य इतिहास में उज्जैन के महत्व और अभी किए गये विकास का अवलोकन कर सभी के लिए सही चित्रण प्रस्तुत किया जाए।

उज्जैन, एक समय भारत का सबसे प्रमुख शहर था, जो प्राचीन भारत के प्रमुख राजनीतिक और वाणिज्यिक केन्द्र के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक के केन्द्र भी था। हालाँकि, उज्जैन समय के साथ, विभिन्न शासकों के बदलने से बदला लेकिन अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर के स्वरूप को बरकरार रखते हुए विकसित होता गया। आज भी शहर के तमाम शहरीकरण के बाद भी लोगो के प्रत्येक कार्य में, धार्मिक स्थलों, कला और वास्तुकला में रुचि परिलक्षित होती है।

उज्जैन को हिन्दू भक्तों के सबसे पवित्र शहरों में से एक माना जाता है। यहां मन्दिरों और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण इमारतों की बहुतायत है। यहाँ पर कला और धार्मिक रीति-रिवाजों को मानने वाले लोगो के साथ साथ यह भी ज्ञात होता है कि इस शहर ने इतिहास और सांस्कृतिक विकास के किन किन आयामों को छुएँ हैं। अलग-अलग समय की स्थानीय प्रथाओं पर विचार करके, यह समझने के लिए एक दृष्टिकोण पर आना संभव हो पाएगा कि उज्जैन शहर आज तक कैसे जीवित रहा और विकसित होते हुए भी इसने अपनी विरासत को नहीं छोड़ा। पुराणों के अनुसार भारत की पवित्रतम सप्तपुरियों में अवन्तिका अर्थात उज्जैन भी एक है। इसी आधार पर उज्जैन का धार्मिक महत्व है। उज्जैन में ही 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर स्थित हैं।इन दोनों कारणों से उज्जैन एक प्रतिष्ठित धार्मिक नगर की श्रेणी में आता है।यहां पर श्मशान, ऊसर, क्षेत्र, पीठ एवं वन, ये पाँच विशेष संयोग एक ही स्थल पर उपलब्ध हैं। यह संयोग उज्जैन की महिमा को और भी अधिक गरिमामय बनाता है। 

श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठं तु वनमेव च, पंचैकत्र न लभ्यते महाकाल पुरदृते। (अवन्तिका क्षेत्र माहात्म्य 1-42) 

क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर स्थित उज्जैन कभी मध्य भारत के मालवा पठार पर सबसे प्रमुख शहर था। क्षिप्रा के सुंदर तट पर और मालवा के पठार पर स्थित , उज्जैन समुद्र तल से 491.74o की ऊंचाई पर है और 23.11o देशांतर उत्तर और 75.50o पूर्वी अक्षांश पर स्थित है। उज्जैन में मध्यम तापमान होता है और इसलिए आमतौर पर यहाँ की जलवायु सुखद होती है।पुराणों के अनुसार, उज्जैन के कई नाम हैं 1.उज्जैनी, 2. प्रतिपाल, 3. पद्मावती, 4. अवंतिका, 5. भोगवती, 6. अमरावती, 7. कुमुदवती, 8. विशाला, 9 कुशस्थति आदि। एक समय में यह शहर अवंती जनपद की राजधानी बन गया था और इसी कारण इसे अवंतिकापुरी के नाम से भी जाना गया । उज्जैन लगभग 5000 वर्ष पुराना शहर बताया जाता है। आदि ब्रह्म पुराण में इसे सबसे अच्छे शहर के रूप में बताया गया है। अग्निपुराण और गरुड़ पुराण में इसे मोक्षदा और भक्ति-मुक्ति कहा गया है। धार्मिक पुस्तकों के अनुसार इस शहर ने कभी विनाश नहीं देखा है। क्योंकि महाकाल स्वयं यहां निवास करते हैं इसलिए विनाश की कोई बात ही नहीं आती। गरुड़ पुराण में उद्धृत

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जो सात शहर मोक्ष प्रदान कर सकते हैं और उनमें से अवंतिका शहर सबसे अच्छा माना गया है। अवंतिका, उज्जैन का ही दूसरा नाम है।
अयोध्या मथुरा, माया, काशी कान्ची अवन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैता: मोक्षदायिका:।।
इस शहर में ज्योतिर्लिंग है, मुक्ति प्रदान करने वाले शहरों में से एक शहर और गढ़कालिका और हरसिद्धि नामक दो शक्ति पीठ तथा पवित्र कुंभ का स्थान भी है। यही पर राजा भर्तरी की गुफा है और माना जाता है कि उज्जैन में भगवान विष्णु के चरण चिन्ह हैं।

“विष्णौ: पादमवन्तिका”
भगवान राम ने स्वयं उज्जैन में मृत्यु के बाद अपने पिता का अंतिम संस्कार किया था और इसलिए वह स्थान जहां अनुष्ठान हुआ उसे रामघाट के नाम से जाना गया। सिंहस्थ शाही स्नान इसी राम घाट पर होता है। इसके अलावा कालिदास, वराहमिहिर, बाणभट्ट, राजशेखर, पुष्पदंत, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, भर्तृहरि, दिवाकर, कात्यायन और बाण जैसे विविध क्षेत्रों के महान विद्वानों का उज्जैन से जुड़ाव रहा। मुगल सम्राट अकबर ने इस शहर को अपनी क्षेत्रीय राजधानी भी बनाया था । मराठों ने 18 वीं शताब्दी से पहले यहां शासन किया था। इतिहास के अनुसार वर्ष 1235 में, इल्तुतमिश ने यहाँ आक्रमण कर शहर को लूट लिया था। राजा विक्रमादित्य ने भी इस शहर को अपनी राजधानी बनाया था। महान विद्वान कालिदास इसी दरबार में थे। 1810 के वर्षों में, सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से ग्वालियर स्थानांतरित कर दी थी। सिंधिया राजवंशों ने हिंदू धर्म के प्रचार के लिए उज्जैन में बहुत कार्य किया। इस शहर में ही राजा भर्तरी ने “वैराग्य दीक्षा” अपने शिक्षक गुरु गोरक्षनाथ से नाथ परंपरा में ली थी। सदियों से उज्जैन हिंदू, जैन और बुद्ध धर्म का केंद्र रहा है।

दिव: कान्तिवत ख़ण्डमेकम।

स्कंदपुराण के अनुसार, उज्जैन में 84 महादेव, 64 योगिनियां, 8 भैरव और 6 विनायक हैं। महान कवि कालिदास उज्जैन की सुंदरता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उज्जैन स्वर्ग का एक गिरा हुआ भाग है। उज्जैन का महत्व वैज्ञानिक रूप से भी है बताया जाता है कि यह केंद्र में स्थित है तथा महाकाल के इसी शहर से ही ज्योतिष की शुरुआत और विकास हुआ है।।उज्जैन ने ही भारत और विदेशी देशों को समय की गणना की प्रणाली प्रदान की है।

उज्जयिनी के प्राचीन इतिहास के विषय में अनेक विरोधाभास भी हैं। यह निश्चित पूर्वक कहना मुश्किल है कि उज्जयिनी की नींव सर्वप्रथम किसने डाली थी। कुछ विद्वानों का मत है कि अच्युतगामी ने उज्जयिनी को बसाया था किन्तु प्रमाणिकता के आधार पर इतिहास भी यहाँ मौन है। पुराणों के आधार पर उज्जयिनी के इतिहास पर प्रकाश डाल सकते हैं । स्कन्द पुराण के अनुसार त्रिपुर राक्षस का वध करके भगवान शंकर ने उज्जयिनी बसायी थी। इसी प्रकार अवंति खंड में भी विस्तार पूर्वक वर्णन के अनुसार सनकादि ऋषियों द्वारा उज्जयिनी नाम दिया गया था।

उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई. सन 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय के जो सोलह जनपद देश में थे उनमें अवंति जनपद भी एक था।यह प्राचीन अवंती साम्राज्य की राजधानी भी रही। जो सोलह महाजनपदों में से एक था।अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होने के बाद उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन बनी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति बनी। उस समय चंद्रप्रद्योत सम्राट सिंहासन पर आसीन थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व रहा। मौर्य साम्राज्य के अभ्युदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र महान अशोक ने उज्जयिनी के शासक बिन्दुसार, अपने पिता के मृत्यु पश्चात उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सँभाली थी। सम्राट अशोक के पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव देखा। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सातवीं शताब्दी में उज्जैन, कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। सन् 648 ई में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात नौवीं शताब्दी तक उज्जैन परमारों के आधिपत्य में रहा। परमारों का शासन गयारहवीं शताब्दी तक रहा । इसके पश्चात उज्जैन, चौहान और तोमर राजपूतों के अधिकारों में आ गया था।सन्1235 ई.में दिल्ली के शमशुद्दीन इल्तमिश ने विदिशा पर जीत हासिल करने के बाद उज्जैन की तरफ़ रुख़ किया। इस क्रूर शासक ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु यहाँ के प्राचीन मन्दिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों के वैभव को भी नष्ट किया। सन् 1737 ई. में उज्जैन, सिंधिया वंश के अधिकार में आया। इनका सन 1880 तक एक छत्र राज्य रहा इस दौरान उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार भी कराया था। लगभग 600 ईसा पूर्व मध्य भारत के राजनीतिक केंद्र के रूप में उभरने के बाद उज्जैन 19वीं सदी की शुरुआत तक मध्य भारत का महत्वपूर्ण राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्र बना रहा। ब्रिटिश प्रशासकों इसके बाद उज्जैन के विकल्प के रूप में इंदौर को विकसित करने का निर्णय लिया।उज्जैन स्मार्ट सिटी मिशन के तहत स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित होने वाले सौ भारतीय शहरों में से एक है।

शिप्रा नदी के तट पर‍ बसा उज्जैन प्राचीनकाल से ही धर्म, दर्शन, संस्कृति, विद्या एवं आस्था का केंद्र रहा है। इसी आधार पर यहां कई धार्मिक स्थलों का निर्माण स्वाभाविक रूप से हुआ। समय समय पर हिन्दू धर्म और संस्कृति के पोषक अनेक राजाओं, धर्मगुरुओं एवं महंतों ने जनसहयोग से इस महातीर्थ को सुंदर एवं आकर्षक मंदिरों, आराधना स्थलों से श्रृंगारित किया। उज्जैन के प्राचीन मंदिर एवं पूजा स्थल जहां एक ओर पुरातत्व शास्त्र की बहुमूल्य धरोहर हैं तो वहीं दूसरी ओर ये हमारी आस्‍था एवं विश्वास के आदर्श केन्द्र भी हैं।

प्राचीन भारतीय संस्कृति का सम्मान करने और ऐतिहासिक स्मारकों से इन स्मारकों के निर्माण में प्रयुक्त इंजीनियरिंग कौशल और प्रौद्योगिकी के बारे में सीखने के लिए उज्जैन की यात्रा ने बहुत मदद की।इस यात्रा से भारत में 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच विकसित ऐतिहासिक स्थानों के आसपास हुई शहरीकरण प्रक्रिया की समझ भी बढ़ी। इस दौरे से सामुदायिक अनुभव भी प्राप्त हुए। इस प्रकार के ज्ञान से राष्ट्र के जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेकर वास्तविक लोकतांत्रिक नागरिक बनने में मदद मिलती है। इस यात्रा ने परस्पर निर्भरता विकसित करने में भी मदद की।

इस तरह की यात्राओं से विक्रेताओं और अन्य लोगों के साथ संचार कौशल प्राप्त करने का मौका मिलता है, जो एक निरंतर प्रक्रिया है। साथ ही कार्य अनुभवों की एक श्रृंखला विकसित होती है और कार्य, सीखने और नेतृत्व के लिए कौशल विकसित करने में मदद मिलती है। ऐतिहासिक स्थानों का दौरा करने और प्राचीन काल में उपयोग की जाने वाली तकनीक से सीखने को बहुत कुछ मिलता है तथा यह भी पता चलता है कि देश का इतिहास कितना समृद्धशाली है। यह सीखने का अवसर प्रदान करती है जो कक्षा और प्रयोगशाला अध्ययनों में प्राप्त करने से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। सीखने का अनुभव हमें जांच, निर्माण और समस्या-समाधान के कौशल विकसित करने और उपयोग करने में मदद करता है । साथ ही यात्रा से प्रौद्योगिकी समाज को प्रगति और बेहतर भविष्य हासिल करने में क्या मदद हो सकती है इसका भी अनुभव होता है। डॉ. ओकर के सिद्धांत का सबसे अच्छा उदाहरण है कि सामाजिक विकास में प्रौद्योगिकी के उपयोग का अध्ययन एक दीर्घकालिक जांच है और यात्राएँ इसका हिस्सा हैं। उनके सिद्धांत से यह भी पता चला कि प्रौद्योगिकी मानवता के बिना संभव नहीं है और यह धीरे-धीरे एक सहज कल्पना का रूप ले रही है यह सब साक्षात लोगो से मिलने, चर्चा करने से ही ज्ञात होता है। जीवन को सहज और खुशहाल रखने के लिए अपनी सोच को बड़ा करने के लिए यात्रायें आवश्यक होती है। धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विवरण जानने के बाद उज्जैन स्थित कुछ मुख्य स्थलों का भ्रमण करने के पश्चात विवरण प्रस्तुत है जिस से उज्जैन का इतिहास के साथ अन्य स्थलों की जानकारी सुविधाजनक रहे।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग

आकाशे तारकं लिंगं, पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके च महाकालौ: लिंगत्रय नमोस्तुते।।
(अर्थात् ब्रह्मांड में सर्वपूज्य माने गए तीनों लिंगों में भूलोक में स्‍थित भगवान महाकाल प्रधान हैं) महाकाल की गणना 12 ज्योतिर्लिंगों में होती है। महाकालेश्वर मन्दिर की महिमा का विभिन्न पुराणों में विशद वर्णन किया गया है। उज्जैन के प्रथम और शाश्वत शासक महाराजाधिराज श्री महाकाल को ही माना जाता है। दक्षिण मुखी होने से इनका विशेष तांत्रिक महत्व भी है। ये कालचक्र के प्रवर्तक हैं तथा भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले बाबा महाकालेश्वर हैं।इनके दर्शन मात्र से ही प्राणियों की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है, ऐसी शास्त्रोंकीमान्यताहैरुद्र सागर झील से घिरे हुए इस विशाल मन्दिर  के बारे में मान्यता है कि यहां  एक बार दर्शन करने मात्र से भक्तों की हर काम सिद्ध हो सकते हैं।उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्रीय बिंदु  हुआ करता था।

भारत के नाभिस्थल में कर्क रेखा पर स्थित श्री महाकाल का वर्णन रामायण, महाभारत आदि पुराणों एवं संस्कृत साहित्य के अनेक काव्य ग्रंथों में अधिसंख्य स्थानों पर उपलब्ध है। इतिहास बताता है कि इस अति प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार राजा भोज के पुत्र उदयादित्य ने करवाया था। उसके पश्चात पुन: जीर्ण होने पर सन् 1734 में तत्कालीन दीवान रामचन्द्रराव शेणवी ने इसका फिर से जीर्णोद्धार करवाया तत्पश्चात् सिन्धिया परिवार ने भी जीर्णोद्धार करवाया। मन्दिर में महाकाल का विशाल लिंग स्थित है जिसकी जलाधारी का मुख पूर्व की ओर है।साथ ही पहली मंजिल पर ओंकारेश्वर तथा दूसरी मंजिल पर नागचन्द्रेश्वर की प्रतिमाएँ स्थित हैं। भगवान नागचन्द्रेश्वर के दर्शन वर्ष में केवल एक बार नागपंचमी पर ही होते हैं। महाकाल के दक्षिण मेंवृद्धकालेश्वर, अनादि कल्पेश्वर तथा सप्तऋषियों के मन्दिर स्‍थित हैं।इसके उत्तर में चन्द्रादित्येश्वर, देवी अवन्तिका, बृहस्पतेश्वर, स्वप्नेश्वर तथा समर्थ रामदास द्वारा स्थापित श्री हनुमानजी का मन्दिर है। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं।दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। प्रचलित है कि भारतवर्ष में यह एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जहां ताजी चिता भस्म से प्रात: 4 बजे भस्म आरती होती है। उस समय पूरा वातावरण अत्यंत मनोहारी एवं शिवमय हो जाता है।महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। यह एक अनूठी वि शेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में ही पाया जाता है।

श्रावण मास तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां पर विशेष उत्सव होते हैं। श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को महाराजाधिराज महाकालेश्वर की सवारी निकाली जाती है। पूरे शहर को इस अवसर पर बंदनवारों एवं बल्बों से सजाया जाता है। यह सवारी मंदिर प्रांगण से निकलकर शिप्रा नदी के तट तक जाती है। विशेषता है कि मुस्लिम समुदाय के बैंड-बाजे वाले भी श्री महाकाल की सवारी में अपना नि:शुल्क योगदान देते हैं। यह हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द का अनूठा उदाहरण है।  महाकाल शहर और उसके लोगों के जीवन पर पूरी तरह से  हावी है।सभी अपने आधुनिक व्यस्तताओं के व्यस्त दिनचर्या के बीच भी श्रद्धा, विश्वास और पिछली परंपराओं के साथ एक अटूट संबंध रखते हैं। महाशिवरात्रि के दिन, मंदिर के पास एक विशाल मेला लगता है, और रात में पूजा होती है।

  श्री बड़े गणपति जी का मन्दिर 

श्री महाकालेश्वर मन्दिर के पीछे तथा प्रवचन हॉल के सामने श्री गणेशजी की विशालकाय एवं अत्यंत आकर्षक मूर्ति प्रतिस्थापित है। इस मन्दिर का निर्माण 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महर्षि संदीपनि के वंशज एवं विख्यात ज्योतिषविद् स्व. पण्डित नारायणजी व्यास द्वारा करवाया गया था। यह स्थान स्व. व्यासजी का उपासना स्थल भी रह चुका है। इस मन्दिर में पंचमुखी हनुमानजी की अत्यंत आकर्षक मूर्ति भी प्रतिष्ठित है। इसके अतिरिक्त भीतरी भाग में, पश्चिम दिशा की ओर नवग्रहों की मूर्तियां हैं।

ज्योतिष एवं संस्कृत के विख्यात केंद्र के रूप में विकसित यह स्थान हजारों छात्रों को अब तक शिक्षा प्रदान कर चुका है। श्री नारायण विजय पंचांग का प्रकाशन भी यहां से होता है। स्व. पण्डित नारायणजी व्यास के पुत्र प्रकांड विद्वान स्व. पण्डित सूर्यनारायण जी व्यास ने ज्योतिष, साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया है।

श्री हरसिद्धिदेवी का मन्दिर

उज्जैन में महत्वपूर्ण मंदिरों की सूची में एक और रत्न, हरसिद्धि मन्दिर, का प्रमुख महत्व है। स्कंद पुराण में वर्णित है कि शिवजी के कहने पर मां भगवती ने दुष्ट दानवों का वध किया था अत: तब से ही उनका नाम हरसिद्धि नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिवपुराण के अनुसार सती की कोहनी यहीं पर गिरी थी अतएव तांत्रिक ग्रंथों में इसे सिद्ध शक्तिपीठ की संज्ञा दी गई है। यह देवी, सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य कुल देवी भी कही जाती है। मन्दिर पत्थर से बना है और प्राचीन भारतीय डिजाइन में बनाया गया है।  बताया जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने यहां पर घोर तपस्या की थी तथा लगातार 11 बार अपना सिर काटकर देवी को समर्पित किया था लेकिन प्रत्येक बार सिर पुन: उनके शरीर से जुड़ गया था। उपरोक्त तथ्‍यों के कारण इस मन्दिर का अपना विशिष्ट महत्व है।

इस मन्दिर के गर्भगृह में श्री यंत्र प्रतिष्ठित है। ऊपर श्री अन्नपूर्णा तथा उनके आसन के नीचे कालिका, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती आदि देवियों की प्रतिमाएँ हैं। रुद्र सागर तालाब के निकट इस मन्दिर के परकोटे में चारों तरफ़ द्वार हैं। इस मन्दिर के प्रांगण में दो विशाल दीप स्तंभ हैं जिन पर नवरात्रि में दीपक जलाए जाते हैं। इसके कोने पर एक अति प्राचीन बावड़ी भी है। इस मन्दिर के पीछे संतोषी माता एवं अगस्त्येश्वर महादेव का मन्दिर भी है। स्कंदपुराण में उल्लेख है कि इस मन्दिर के दर्शन से अपार पुण्य प्राप्त होता है। 

श्री गोपाल मन्दिर 

श्री गोपाल मन्दिर हलचल भरे बिग मार्केट स्क्वायर के बीच में स्थित है। यह उज्जैन के लोकप्रिय तीर्थ स्थलों में से एक है। इसे द्वारकाधीश मन्दिर के रूप में भी जाना जाता है। श्री गोपाल मन्दिर भगवान कृष्ण को समर्पित है। मन्दिर का निर्माण  मराठा राजा दौलतराव शिंदे की पत्नी बयाज़ी बाई शिंदे ने 19वीं सदी में करवाया था। उज्जैन में महाकालेश्वर के बाद गोपाल मन्दिर दूसरा सबसे बड़ा मन्दिर है।
मराठा वास्तुकला के शानदार नमूने का प्रदर्शन करता हुआ यह मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है। मन्दिर में भगवान कृष्ण की दो फुट ऊंची चाँदी की और सोने की मूर्ति है जो चाँदी की परत वाले दरवाजों वाली संगमरमर की वेदी पर रखी गई है। सोमनाथ मन्दिर से महमूद गाज़ी द्वारा चुराए गए चाँदी की परत वाले दरवाजों के बारे में एक मिथक है और इसे महमूद शाह अब्दाली द्वारा वापस लाहौर ले जाया गया था जो एक अफगान आक्रमणकारी था। काफी जद्दोजहद के बाद कपाट बरामद हुए और श्री गोपाल मन्दिर में स्थापित किए गए। इसके अलावा, मन्दिर में भगवान शिव, पार्वती और गरुड़ की मूर्तियां भी हैं।यह प्राचीन संपत्ति है जो सिंधिया सम्पदा है जो बाद में मन्दिर में बदल दी गई थी। द्वारिकाधीश गोपाल मन्दिर करीब दो सौ साल पुराना बताया जाता है। इस मन्दिर परिसर में जन्माष्टमी और हरिहर पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हरिहर पर्व का त्योहार भगवान कृष्ण (हरि) और भगवान शिव (हर) के मिलन का प्रतीक है। भगवान महाकाल आधी रात को भगवान कृष्ण के दर्शन के लिए मन्दिरp में पहुंचते हैं।

श्री राम-जनार्दन मन्दिर

 श्री राम-जनार्दन मन्दिर भी दर्शनीय एवं ऐतिहासिक महत्व से परिपूर्ण है। इसका निर्माण राजा जयसिंह द्वारा किया गया था। यह मन्दिर प्राचीन विष्णुसागर के तट पर स्थित है।इस मन्दिर में 11वीं शताब्दी में बनी शेषशायी विष्णु की तथा 10वीं शताब्दी में निर्मित गोवर्धनधारी कृष्ण की प्रतिमाएँ भी लगी हैं। यहां पर श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी जी की प्रतिमाएँ वनवासी वेशभूषा में उपस्थित हैं।

श्री चारधाम मन्दिर 

यह आधुनिक मन्दिर श्री हरसिद्धिदेवी मन्दिर की दक्षिण दिशा में स्थित है। स्वामी शांतिस्वरूपानंद जी तथा युगपुरुष स्वामी परमानंद जी महाराज के प्रयासों से इस मन्दिर की स्थापना अखंड आश्रम परिसर में हुई।श्री द्वारका धाम एवं श्री जगन्नाथ धाम की सन् 1997 में तथा श्री रामेश्वर धाम की सन् 1999 में प्राण-प्रतिष्ठा हुई थी। चौथे धाम श्री ब‍द्री विशाल की प्राण- प्रतिष्ठा सन् 2001 में हुई। इन प्रतिमाओं की विशेषता यह है कि इन्हें स्वाभाविक मूल स्वरूप ही प्रदान किया गया है ताकि भक्त जन को यथार्थ दर्शन के लाभ प्राप्त हो सकें। एक ही परिसर में चारों धामों के दर्शन को प्राप्त करना प्राय: दुर्लभ संयोग ही होता है। इस परिसर के प्रवेश द्वार पर ही एक सुंदर बगीचा है एवं इसके पार्श्व में संत निवास तथा साधना कक्ष भी निर्मित है। यह मन्दिर परिसर अपनी विशिष्ट शैली का एक अनूठा उदाहरण है।

कालिया देह महल हालांकि उज्जैन को भारत में लोकप्रिय पर्यटन स्थल बनाने का एक बड़ा योगदान मन्दिरों को जाता है लेकिन शहर में भक्तों और मन्दिरों  के अलावा भी बहुत कुछ है। प्राचीनकाल के  कालिया देह महल को अब सूर्य मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यह भैरवगढ़ से 3‍ किमी की दूरी पर शिप्रा नदी के पास स्थित है। मुगल शासक मुहम्मद खिलजी ने सन् 1458 में इस महल का निर्माण करवाया था। तत्पश्चात् मांडू के सुल्तान ने यहां 52 कुंडों का निर्माण करवाया था।

यहाँ के महल राजाओं और राजकुमारों के साथ उज्जैन के सांस्कृतिक महत्व और उसके इतिहास का प्रतीक है। महल के पीछे से बहती शिप्रा नदी की धारा दो भागों में बंटकर उसका जल प्रवाह इन कुंडों में किया गया है। लोगो द्वारा बताया गया कि वर्षा ऋतु में कल-कल की ध्वनि से इन कुंडों से व कुंडों की घुमावदार नालियों से बहता पानी सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है। 

श्री कालभैरव मन्दिर

अष्ट भैरवों में प्रमुख श्री कालभैरव का मन्दिर अत्यंत प्राचीन और चमत्कारिक है। इस मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भैरव प्रतिमा के मुँह में कोई छिद्र न होते हुए भी यह प्रतिमा मदिरापान करती है। जब पुजारी द्वारा मद्य पात्र भगवान भैरव जी के मुँह से लगाया जाता है, तो सबके देखते ही देखते पात्र स्वत: ही खाली हो जाता है। इस मन्दिर में लोगों की बेहद आस्था  है।

उज्जैन के भैरवगढ़ के दक्षिण में तथा शिप्रा नदी के तट पर श्री कालभैरव का यह चमत्कारिक मन्दिर है। कालभैरव के दक्षिण में करभेश्वर महादेव एवं विक्रांत भैरव के भी स्थान हैं। स्कंद पुराण में इसी कालभैरव मन्दिर का अवंतिका खंड में वर्णन मिलता है। राजा भद्रसेन द्वारा इस मन्दिर का निर्माण कराया गया था। उसके टूट फूट जाने पर राजा जयसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। इसी मन्दिर के प्रांगण में स्थित एक संकरी और गहरी गुफा में पाताल भैरवी का मन्दिर भी है। यह स्‍थान तांत्रिक साधना हेतु विशेष महत्वपूर्ण तथा प्रतिष्ठित है।

श्री मंगल नाथ मन्दिर

 श्री मंगल नाथ का मन्दिर एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन मन्दिर है। मत्स्य पुराण में मंगल ग्रह को भूमि-पुत्र कहा गया है। पौराणिक मान्यता है कि मंगल ग्रह की जन्मभूमि भी यहीं है। इस कारण मंगल नाथ की पूजा एवं आराधना का अपना विशेष महत्व है। मंगल ग्रह की शांति, शिव कृपा, ऋणमुक्ति तथा धन प्राप्ति हेतु श्री मंगल नाथ जी की यहाँ उपासना की जाती है। यहां पर भात-पूजा तथा रुद्राभिषेक करने का विशेष महत्त्व है।

ज्योतिष एवं खगोल‍ विज्ञान के दृष्टिकोण से भी यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। मन्दिर भगवान शिव की पूजा के लिए समर्पित है।यह मन्दिर एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है। इसके प्रांगण में पृथ्वी देवी की अत्यंत प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। शक्ति स्वरूपा होने के कारण इन्हें सिन्दूर का चोला चढ़ाया जाता है।

वेधशाला
ज्योतिष शास्त्र के दृष्णिकोण से यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस वेधशाला का निर्माण सन् 1730 में राजा जयसिंह ने करवाया था। सन् 1923 में महाराजा माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। सम्राट यंत्र, रिगंश यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र तथा भित्ति यंत्र आदि यहां के प्रमुख यंत्र हैं। खगोल अध्ययन के लिए यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे जन्तर मन्तर के नाम से भी जाना जाता है।

श्री भर्तृहरि गुफा

गढ़कालिका के दक्षिण में भर्तृहरि गुफा स्‍थित है। सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई राजा भर्तृहरि की साधना-स्थली होने के कारण यह स्थान प्रसिद्ध है। राज-पाट त्यागने के पश्चात उन्होंने नाथ पंथ की दीक्षा लेकर कई वर्षों तक यहां पर घनघोर योग-साधना की थी। पुरातात्विक धृष्टि से भर्तृहरि गुफा खास है। क्षेत्र के इतिहास के बारे में बहुत कुछ यहाँ प्राप्त हो जाता है। सदियों पहले उज्जैन में रहने वाले लोगों के जीवन के रहन सहन तथा जीवन शैली के बारे में बारे में जानकारी प्राप्त होती है। शिप्रा तट पर स्थित यह गुफा, बौद्ध एवं परमारकालीन स्थापत्य कला की संरचना है। इसका प्रवेश मार्ग तुलनात्मक रूप से संकरा है तथा भीतरी दक्षिणी भाग में गोपीचंद जी की प्रतिमा है। राजयोगी भर्तृहरि की धूनी के ऊपर की शिला पर हाथ के पंजे के निशान हैं। कहा जाता है कि भर्तृहरि की तपस्या से इंद्र डर गये थे और उनकी तपस्या को भंग करने के लिए उन्होंने एक शिला फेंकी जिसे भर्तृहरि जी ने अपना हाथ ऊपर करके वहीं रोक दिया था। अत: भर्तृहरि जी के हाथ का निशान इस शिला पर अंकित हो गया। किंवदंती है कि पहले इस गुफा के अंदर से ही चारों धामों तक जाने के रास्ते थे, जो आजकल बंद हैं। इस गुफा की व्यवस्था नाथपंथी साधु गण करते हैं। यहां से कुछ दूर पर नाग पंथ के प्रमुख आचार्य मत्स्येन्द्रनाथजी की समाधि है। उनको पीर मछंदर नाथ भी कहते हैं।

श्री सांदीपनि आश्रम 

अंकपात क्षेत्र में स्थित इस आश्रम में भगवान श्रीकृष्ण-सुदामा और बलरामजी ने अपने गुरु श्री सांदीपनि ऋषि के सान्निध्य में रहकर गुरुकुल परंपरा के अनुसार विद्याध्ययन कर 14 विद्याएँ तथा 64 कलायें सीखी थीं। उस काल में तक्षशिला और नालंदा की तरह उज्जैन (अवन्तिका) भी ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति का सुप्रसिद्ध केंद्र था। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण यहां स्लेट पर लिखे अंक धोकर मिटाते थे इसलिए ही इस क्षेत्र का नाम अंकपात पड़ा। श्रीमद्भागवत, महाभारत तथा कई अन्य पुराणों में यहां का वर्णन है। यहां पर स्‍थित कुंड में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरुजी को स्नानार्थ गोमती नदी का जल उपलब्ध करवाया था इसलिए इसे गोमती कुंड कहा जाता है।

इस कुंड का बहुत धार्मिक महत्व है। माना जाता है कि इस कुंड में भगवान श्रीकृष्ण सभी तरह के पवित्र पानी का आह्वान करते थे ताकि पवित्र जल की तलाश में उनके गुरु सांदीपनि को यात्रा न करनी पड़े और वो यही स्नान कर सकें। यहां पर स्थित मंदिर में श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुदामा जी की मूर्तियाँ हैं। महर्षि सांदीपनि के वंशज अभी भी उज्जैन में निवास करते हैं तथा प्रख्यात ज्योतिर्विद के रूप में जाने जाते हैं। इसी अंकपात क्षेत्र में सिंहस्थ महाकुंभ का मेला लगता है तथा यह ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण स्‍थान माना जाता है। इस आश्रम के पास एक पत्थर भी है जिसमें 1 से लेकर 100 तक की संख्या उकेरी गई हैं। माना जाता है कि इन संख्याओं को खुद गुरु सांदीपनि ने उकेरा था।  

नगरकोट की रानी

नगरकोट की रानी प्राचीन उज्जयिनी के दक्षिण-पश्चिम कोने की सुरक्षा देवी है। यह स्थान पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। राजा विक्रमादित्य और राजा भर्तृहरि की अनेक कथाएँ इस स्‍थान से संबद्ध हैं। यह स्थान नाथ संप्रदाय की परंपरा से जुड़ा है। मन्दिर के सामने एक कुंड है, जो परमारकालीन है। कुंड के दोनों ओर दो छोटे मन्दिर हैं। एक मन्दिर में गुप्तकालीन कार्तिकेय की प्रतिमा है। यह स्थान नगर के प्राचीन कच्चे परकोटे पर स्थित है इसलिए इसे नगरकोट की रानी कहा जाता है। 

श्री गढ़कालिका देवी मन्दिर

गढ़कालिका देवी को महाकवि कालिदास की आराध्य देवी माना जाता है। उनकी अनुकंपा से ही अल्पज्ञ कालिदास को विद्वता प्राप्त हुई थी। तांत्रिक दृष्टि से यह एक सिद्धपीठ है। त्रिपुरा माहात्म्य के अनुसार देश के 12 प्रमुख शक्तिपीठों में इसका छठा स्थान है।यह मन्दिर जिस स्थान पर स्थित है, वहां कभी प्राचीन अवन्तिका नगरी बसी हुई थी। गढ़ पर स्थित होने के कारण यह गढ़कालिका कहलायी। मन्दिर में कालिका जी के एक तरफ श्री महालक्ष्मी जी हैं और दूसरी तरफ श्री महासरस्वती जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है।कुछ दूरी पर ही शिप्रा नदी है जहां पर सतियों का स्थान भी है। उसके सामने ओखर श्मशान घाट है। पौराणिक दृष्टिकोण से गढ़कालिका मन्दिर का विशेष महत्व है।

श्री चिंतामण गणेश मन्दिर

यह एक प्राचीन मन्दिर है। इस परमारकालीन मन्दिर का जीर्णोद्धार महारानी अहिल्याबाई ने करवाया था। यहां पर श्री चिंतामणि गणेश के साथ ही इच्छापूर्ण और चिंताहरण गणेशजी की प्रतिमाएँ हैं।ऐसी मान्यता है कि इस मन्दिर में ली गई मनौतियाँ अवश्य ही पूर्ण होती हैं। यह मन्दिर नगर से लगभग 7 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। 

श्री नवग्रह मन्दिर (शनि मन्दिर)  

उज्जैन शहर से लगभग 6 किलोमीटर दूर इंदौर-उज्जैन मार्ग पर त्रिवेणी संगम तीर्थ स्थित है। यहां पर नवग्रहों का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है। स्कंद पुराण में इसे शनिदेव के महत्वपूर्ण स्थान के रूप में मान्यता दी गई है। नवग्रह मन्दिर पर तीन नदियों का मिलन होता है। ये हैं शिप्रा, सरस्वती और गण्डकी। पुराणों में इस मन्दिर का कोई इतिहास प्राप्त नहीं होता है लेकिन शनिवार को पड़ने वाली अमावस्या कोयहाँबहुत दर्शनार्थी आते हैं। नवग्रह मन्दिर में नौ मन्दिर हैं जो सूर्य,चन्द्र,मंगल,बुध,गुरु,शुक्र,राहु,केतु और शनि को समर्पित हैं।

पीर मत्स्येन्द्रनाथ स्थल
पीर मत्स्येन्द्रनाथ अपनी खास वास्तु कला डिजाइन के लिए जाना जाता है। पीर मत्स्येन्द्रनाथ नदी के किनारे स्थित हैं।

भारत माता मन्दिर
भारत माता मन्दिर लोगों के बीच राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है। भारत माता स्वयं देश का अवतार है, जिसे देवी की तरह पूजा जाता है। यह मन्दिर वह जगह है जहां बहुत से लोग देवी को अपना सम्मान देते हैं। 

इस्कॉन मन्दिर
उज्जैन का इस्कॉन मन्दिर देश भर में एक ही नाम के मन्दिरों की श्रृंखला का एक हिस्सा है। मन्दिरों गरीबों और जरूरतमंदों के जीवन को विकसित करने की दिशा में लक्षित एक धर्मार्थ संगठन के रूप में कार्य करता है। उज्जैन के मन्दिर भवन के अत्यंत सुंदर डिजाइन का बना है।

विक्रमादित्य प्रतिमा
अत्यंत मनोहारी छवि जो महाकाल मन्दिर के पास ही स्थापित है। देख कर संस्कृति के ऊपर गौरव होता है।

कुम्भ उत्सव
कुंभ उत्सव देश के कई पवित्र शहरों में होता है। उज्जैन उन शहरों में से एक है जहां देश भर से तीर्थयात्री 15 दिनों तक चलने वाले इस उत्सव का हिस्सा बनने के लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा कर के आते हैं। आकर्षक कहानियों के कारण कुंभ मेला अपने आप में एक अनुभव है, और उत्सव में शामिल होने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा होती है।विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक एवं सामाजिक कार्यक्रम के झांकी के साथ देश के उत्थान की कहानी बतायी जाती है।

राम घाट
राजा भर्तृहरि की गुफा यहाँ पायी जाती है और कहा जाता है कि यहीं पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह हैं। भगवान राम ने स्वयं यहाँ अपने पिता का अंतिम संस्कार किया था। यह लगभग एक किलोमीटर दूर महाकाल मन्दिर से है। क्षिप्रा नदी के तट पर अन्य कई मन्दिर भी बने हुए है। इनमे शिव और चित्रगुप्त जी का मन्दिर बहुत ही प्राचीन एवं बहुत सी मान्यताएँ लिये हुए है। श्री चित्रगुप्त मन्दिर में दूर दूर से भक्त काल सर्प की पूजा करने के लिये आते हैं।
 
चौबीस खंभा मन्दिर
उज्जैन जंक्शन से 2 किमी की दूरी पर स्थित चौबीस खंबा मन्दिर बहुत खूबसूरत मन्दिर है। महाकाल मन्दिर के निकट, यह उज्जैन के सबसे पुराने मन्दिरों में से एक है, और उज्जैन में सबसे लोकप्रिय दर्शनीय स्थलों में से एक है। 9वीं या 10वीं शताब्दी का यह मन्दिर छोटी माता और बड़ी माता को समर्पित है और हिंदू धर्म के अनुयायियों के बीच एक पवित्र स्थल के रूप में प्रसिद्ध है।

 इस शानदार मन्दिर को राजा विक्रमादित्य के समय में बनाया गया था। इस मन्दिर की संरचना को सुंदर बनाने वाले 24 स्तंभों से मन्दिर को अपना नाम मिला। प्रवेश द्वार पर मन्दिर की संरक्षक देवी – महालया, और महामाया की छवियों को दिखाया गया है, जिनके नाम मन्दिर के सीढ़ियों पर उकेरे गए हैं। शुक्ल पक्ष की अष्टमी और नवरात्रि के शुभ दिन यहां सबसे खास होते हैं। ऐसा प्रचलित है कि साधारणतः कोई भी सभी खंभों की गिनती नहीं कर पाता, बीच में ही भूल जाता है।

महाकाल कॉरिडोर
श्री महाकाल मन्दिर से सटा हुआ ही एक अत्यंत मनोहारी कॉरिडोर का अभी हाल में ही निर्माण हुआ है। उज्जैन के इतिहास तथा यहाँ की विद्वानों के बारे में संपूर्ण व्याख्या यह पर उकेरी गई है। विभिन्न मंडप अत्यंत सुरुचि पूर्वक बनाये गये है तथा सभी के लिए प्रदर्शित किए गये हैं।

उज्जैन तो मन्दिरों का शहर ही कहा जाता है। परंतु मन्दिरों के अतिरिक्त प्राचीन महल एवं बहुत से पुरातात्विक अवशेष भी देखने को मिलते है जिस से पुरातन धरोहरों एवं अत्यंत उन्नति संस्कृति के दर्शन भी होते है। प्रयास रहा की मुख्य स्थलों का भ्रमण कर उज्जैन की वस्तु स्थिति से परिचित करा सकूँ परंतु अभी बहुत से अनछुए पहलू रह गये है।

संकलन: अरुण कुमार
सिन्हा
चिंतक एवं शिक्षाविद्

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