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उज्जैन यात्रा

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भारत के ऐतिहासिक शहर उज्जैन, मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य में क्षिप्रा नदी के किनारे बसी एक प्राचीन नगरी का एक व्यापक परिचय प्रस्तुत करने का यह प्रयास है। यात्रा का उद्देश्य इतिहास में उज्जैन के महत्व और अभी किए गये विकास का अवलोकन कर सभी के लिए सही चित्रण प्रस्तुत किया जाए।

उज्जैन, एक समय भारत का सबसे प्रमुख शहर था, जो प्राचीन भारत के प्रमुख राजनीतिक और वाणिज्यिक केन्द्र के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक के केन्द्र भी था। हालाँकि, उज्जैन समय के साथ, विभिन्न शासकों के बदलने से बदला लेकिन अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर के स्वरूप को बरकरार रखते हुए विकसित होता गया। आज भी शहर के तमाम शहरीकरण के बाद भी लोगो के प्रत्येक कार्य में, धार्मिक स्थलों, कला और वास्तुकला में रुचि परिलक्षित होती है।

उज्जैन को हिन्दू भक्तों के सबसे पवित्र शहरों में से एक माना जाता है। यहां मन्दिरों और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण इमारतों की बहुतायत है। यहाँ पर कला और धार्मिक रीति-रिवाजों को मानने वाले लोगो के साथ साथ यह भी ज्ञात होता है कि इस शहर ने इतिहास और सांस्कृतिक विकास के किन किन आयामों को छुएँ हैं। अलग-अलग समय की स्थानीय प्रथाओं पर विचार करके, यह समझने के लिए एक दृष्टिकोण पर आना संभव हो पाएगा कि उज्जैन शहर आज तक कैसे जीवित रहा और विकसित होते हुए भी इसने अपनी विरासत को नहीं छोड़ा।

पुराणों के अनुसार भारत की पवित्रतम सप्तपुरियों में अवन्तिका अर्थात उज्जैन भी एक है। इसी आधार पर उज्जैन का धार्मिक महत्व है। उज्जैन में ही 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर स्थित हैं।इन दोनों कारणों से उज्जैन एक प्रतिष्ठित धार्मिक नगर की श्रेणी में आता है।यहां पर श्मशान, ऊसर, क्षेत्र, पीठ एवं वन, ये पाँच विशेष संयोग एक ही स्थल पर उपलब्ध हैं। यह संयोग उज्जैन की महिमा को और भी अधिक गरिमामय बनाता है। श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठं तु वनमेव च, पंचैकत्र न लभ्यते महाकाल पुरदृते। (अवन्तिका क्षेत्र माहात्म्य 1-42)  क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर स्थित उज्जैन कभी मध्य भारत के मालवा पठार पर सबसे प्रमुख शहर था। क्षिप्रा के सुंदर तट पर और मालवा के पठार पर स्थित , उज्जैन समुद्र तल से 491.74o की ऊंचाई पर है और 23.11o देशांतर उत्तर और 75.50o पूर्वी अक्षांश पर स्थित है। उज्जैन में मध्यम तापमान होता है और इसलिए आमतौर पर यहाँ की जलवायु सुखद होती है।पुराणों के अनुसार, उज्जैन के कई नाम हैं 1.उज्जैनी, 2. प्रतिपाल, 3. पद्मावती, 4. अवंतिका, 5. भोगवती, 6. अमरावती, 7. कुमुदवती, 8. विशाला, 9 कुशस्थति आदि। एक समय में यह शहर अवंती जनपद की राजधानी बन गया था और इसी कारण इसे अवंतिकापुरी के नाम से भी जाना गया । उज्जैन लगभग 5000 वर्ष पुराना शहर बताया जाता है। आदि ब्रह्म पुराण में इसे सबसे अच्छे शहर के रूप में बताया गया है। अग्निपुराण और गरुड़ पुराण में इसे मोक्षदा और भक्ति-मुक्ति कहा गया है। धार्मिक पुस्तकों के अनुसार इस शहर ने कभी विनाश नहीं देखा है। क्योंकि महाकाल स्वयं यहां निवास करते हैं इसलिए विनाश की कोई बात ही नहीं आती। गरुड़ पुराण में उद्धृत

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जो सात शहर मोक्ष प्रदान कर सकते हैं और उनमें से अवंतिका शहर सबसे अच्छा माना गया है। अवंतिका, उज्जैन का ही दूसरा नाम है।

अयोध्या मथुरा, माया, काशी कान्ची अवन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैता: मोक्षदायिका:।।

इस शहर में ज्योतिर्लिंग है, मुक्ति प्रदान करने वाले शहरों में से एक शहर और गढ़कालिका और हरसिद्धि नामक दो शक्ति पीठ तथा पवित्र कुंभ का स्थान भी है। यही पर राजा भर्तरी की गुफा है और माना जाता है कि उज्जैन में भगवान विष्णु के चरण चिन्ह हैं।

“विष्णौ: पादमवन्तिका”
भगवान राम ने स्वयं उज्जैन में मृत्यु के बाद अपने पिता का अंतिम संस्कार किया था और इसलिए वह स्थान जहां अनुष्ठान हुआ उसे रामघाट के नाम से जाना गया। सिंहस्थ शाही स्नान इसी राम घाट पर होता है। इसके अलावा कालिदास, वराहमिहिर, बाणभट्ट, राजशेखर, पुष्पदंत, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, भर्तृहरि, दिवाकर, कात्यायन और बाण जैसे विविध क्षेत्रों के महान विद्वानों का उज्जैन से जुड़ाव रहा। मुगल सम्राट अकबर ने इस शहर को अपनी क्षेत्रीय राजधानी भी बनाया था । मराठों ने 18 वीं शताब्दी से पहले यहां शासन किया था। इतिहास के अनुसार वर्ष 1235 में, इल्तुतमिश ने यहाँ आक्रमण कर शहर को लूट लिया था। राजा विक्रमादित्य ने भी इस शहर को अपनी राजधानी बनाया था। महान विद्वान कालिदास इसी दरबार में थे। 1810 के वर्षों में, सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से ग्वालियर स्थानांतरित कर दी थी। सिंधिया राजवंशों ने हिंदू धर्म के प्रचार के लिए उज्जैन में बहुत कार्य किया। इस शहर में ही राजा भर्तरी ने “वैराग्य दीक्षा” अपने शिक्षक गुरु गोरक्षनाथ से नाथ परंपरा में ली थी। सदियों से उज्जैन हिंदू, जैन और बुद्ध धर्म का केंद्र रहा है।

दिव: कान्तिवत ख़ण्डमेकम। स्कंदपुराण के अनुसार, उज्जैन में 84 महादेव, 64 योगिनियां, 8 भैरव और 6 विनायक हैं। महान कवि कालिदास उज्जैन की सुंदरता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उज्जैन स्वर्ग का एक गिरा हुआ भाग है।

उज्जैन का महत्व वैज्ञानिक रूप से भी है बताया जाता है कि यह केंद्र में स्थित है तथा महाकाल के इसी शहर से ही ज्योतिष की शुरुआत और विकास हुआ है।।उज्जैन ने ही भारत और विदेशी देशों को समय की गणना की प्रणाली प्रदान की है।

उज्जयिनी के प्राचीन इतिहास के विषय में अनेक विरोधाभास भी हैं। यह निश्चित पूर्वक कहना मुश्किल है कि उज्जयिनी की नींव सर्वप्रथम किसने डाली थी। कुछ विद्वानों का मत है कि अच्युतगामी ने उज्जयिनी को बसाया था किन्तु प्रमाणिकता के आधार पर इतिहास भी यहाँ मौन है। पुराणों के आधार पर उज्जयिनी के इतिहास पर प्रकाश डाल सकते हैं । स्कन्द पुराण के अनुसार त्रिपुर राक्षस का वध करके भगवान शंकर ने उज्जयिनी बसायी थी। इसी प्रकार अवंति खंड में भी विस्तार पूर्वक वर्णन के अनुसार सनकादि ऋषियों द्वारा उज्जयिनी नाम दिया गया था। उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई. सन 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय के जो सोलह जनपद देश में थे उनमें अवंति जनपद भी एक था।यह प्राचीन अवंती साम्राज्य की राजधानी भी रही। जो सोलह महाजनपदों में से एक था।अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होने के बाद उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन बनी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति बनी। उस समय चंद्रप्रद्योत सम्राट सिंहासन पर आसीन थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व रहा। मौर्य साम्राज्य के अभ्युदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र महान अशोक ने उज्जयिनी के शासक बिन्दुसार, अपने पिता के मृत्यु पश्चात उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सँभाली थी। सम्राट अशोक के पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव देखा। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सातवीं शताब्दी में उज्जैन, कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। सन् 648 ई में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात नौवीं शताब्दी तक उज्जैन परमारों के आधिपत्य में रहा। परमारों का शासन गयारहवीं शताब्दी तक रहा। इसके पश्चात उज्जैन, चौहान और तोमर राजपूतों के अधिकारों में आ गया था।सन्1235 ई.में दिल्ली के शमशुद्दीन इल्तमिश ने विदिशा पर जीत हासिल करने के बाद उज्जैन की तरफ़ रुख़ किया। इस क्रूर शासक ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु यहाँ के प्राचीन मन्दिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों के वैभव को भी नष्ट किया। सन् 1737 ई. में उज्जैन, सिंधिया वंश के अधिकार में आया। इनका सन 1880 तक एक छत्र राज्य रहा इस दौरान उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार भी कराया था। लगभग 600 ईसा पूर्व मध्य भारत के राजनीतिक केंद्र के रूप में उभरने के बाद उज्जैन 19वीं सदी की शुरुआत तक मध्य भारत का महत्वपूर्ण राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्र बना रहा। ब्रिटिश प्रशासकों इसके बाद उज्जैन के विकल्प के रूप में इंदौर को विकसित करने का निर्णय लिया।उज्जैन स्मार्ट सिटी मिशन के तहत स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित होने वाले सौ भारतीय शहरों में से एक है।

शिप्रा नदी के तट पर‍ बसा उज्जैन प्राचीनकाल से ही धर्म, दर्शन, संस्कृति, विद्या एवं आस्था का केंद्र रहा है। इसी आधार पर यहां कई धार्मिक स्थलों का निर्माण स्वाभाविक रूप से हुआ। समय समय पर हिन्दू धर्म और संस्कृति के पोषक अनेक राजाओं, धर्मगुरुओं एवं महंतों ने जनसहयोग से इस महातीर्थ को सुंदर एवं आकर्षक मंदिरों, आराधना स्थलों से श्रृंगारित किया। उज्जैन के प्राचीन मंदिर एवं पूजा स्थल जहां एक ओर पुरातत्व शास्त्र की बहुमूल्य धरोहर हैं तो वहीं दूसरी ओर ये हमारी आस्‍था एवं विश्वास के आदर्श केन्द्र भी हैं।

प्राचीन भारतीय संस्कृति का सम्मान करने और ऐतिहासिक स्मारकों से इन स्मारकों के निर्माण में प्रयुक्त इंजीनियरिंग कौशल और प्रौद्योगिकी के बारे में सीखने के लिए उज्जैन की यात्रा ने बहुत मदद की।इस यात्रा से भारत में 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच विकसित ऐतिहासिक स्थानों के आसपास हुई शहरीकरण प्रक्रिया की समझ भी बढ़ी। इस दौरे से सामुदायिक अनुभव भी प्राप्त हुए। इस प्रकार के ज्ञान से राष्ट्र के जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेकर वास्तविक लोकतांत्रिक नागरिक बनने में मदद मिलती है। इस यात्रा ने परस्पर निर्भरता विकसित करने में भी मदद की।

इस तरह की यात्राओं से विक्रेताओं और अन्य लोगों के साथ संचार कौशल प्राप्त करने का मौका मिलता है, जो एक निरंतर प्रक्रिया है। साथ ही कार्य अनुभवों की एक श्रृंखला विकसित होती है और कार्य, सीखने और नेतृत्व के लिए कौशल विकसित करने में मदद मिलती है। ऐतिहासिक स्थानों का दौरा करने और प्राचीन काल में उपयोग की जाने वाली तकनीक से सीखने को बहुत कुछ मिलता है तथा यह भी पता चलता है कि देश का इतिहास कितना समृद्धशाली है। यह सीखने का अवसर प्रदान करती है जो कक्षा और प्रयोगशाला अध्ययनों में प्राप्त करने से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। सीखने का अनुभव हमें जांच, निर्माण और समस्या-समाधान के कौशल विकसित करने और उपयोग करने में मदद करता है । साथ ही यात्रा से प्रौद्योगिकी समाज को प्रगति और बेहतर भविष्य हासिल करने में क्या मदद हो सकती है इसका भी अनुभव होता है। डॉ. ओकर के सिद्धांत का सबसे अच्छा उदाहरण है कि सामाजिक विकास में प्रौद्योगिकी के उपयोग का अध्ययन एक दीर्घकालिक जांच है और यात्राएँ इसका हिस्सा हैं। उनके सिद्धांत से यह भी पता चला कि प्रौद्योगिकी मानवता के बिना संभव नहीं है और यह धीरे-धीरे एक सहज कल्पना का रूप ले रही है यह सब साक्षात लोगो से मिलने, चर्चा करने से ही ज्ञात होता है। जीवन को सहज और खुशहाल रखने के लिए अपनी सोच को बड़ा करने के लिए यात्रायें आवश्यक होती है। धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विवरण जानने के बाद उज्जैन स्थित कुछ मुख्य स्थलों का भ्रमण करने के पश्चात विवरण प्रस्तुत है जिस से उज्जैन का इतिहास के साथ अन्य स्थलों की जानकारी सुविधाजनक रहे।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
आकाशे तारकं लिंगं, पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके च महाकालौ: लिंगत्रय नमोस्तुते।।
(अर्थात् ब्रह्मांड में सर्वपूज्य माने गए तीनों लिंगों में भूलोक में स्‍थित भगवान महाकाल प्रधान हैं) महाकाल की गणना 12 ज्योतिर्लिंगों में होती है।

महाकालेश्वर मन्दिर की महिमा का विभिन्न पुराणों में विशद वर्णन किया गया है। उज्जैन के प्रथम और शाश्वत शासक महाराजाधिराज श्री महाकाल को ही माना जाता है। दक्षिण मुखी होने से इनका विशेष तांत्रिक महत्व भी है। ये कालचक्र के प्रवर्तक हैं तथा भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले बाबा महाकालेश्वर हैं।इनके दर्शन मात्र से ही प्राणियों की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है, ऐसी शास्त्रोंकीमान्यताहैरुद्र सागर झील से घिरे हुए इस विशाल मन्दिर  के बारे में मान्यता है कि यहां  एक बार दर्शन करने मात्र से भक्तों की हर काम सिद्ध हो सकते हैं।उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्रीय बिंदु  हुआ करता था।

भारत के नाभिस्थल में कर्क रेखा पर स्थित श्री महाकाल का वर्णन रामायण, महाभारत आदि पुराणों एवं संस्कृत साहित्य के अनेक काव्य ग्रंथों में अधिसंख्य स्थानों पर उपलब्ध है। इतिहास बताता है कि इस अति प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार राजा भोज के पुत्र उदयादित्य ने करवाया था। उसके पश्चात पुन: जीर्ण होने पर सन् 1734 में तत्कालीन दीवान रामचन्द्रराव शेणवी ने इसका फिर से जीर्णोद्धार करवाया तत्पश्चात् सिन्धिया परिवार ने भी जीर्णोद्धार करवाया। मन्दिर में महाकाल का विशाल लिंग स्थित है जिसकी जलाधारी का मुख पूर्व की ओर है।साथ ही पहली मंजिल पर ओंकारेश्वर तथा दूसरी मंजिल पर नागचन्द्रेश्वर की प्रतिमाएँ स्थित हैं। भगवान नागचन्द्रेश्वर के दर्शन वर्ष में केवल एक बार नागपंचमी पर ही होते हैं। महाकाल के दक्षिण में वृद्धकालेश्वर, अनादि कल्पेश्वर तथा सप्तऋषियों के मन्दिर स्‍थित हैं।इसके उत्तर में चन्द्रादित्येश्वर, देवी अवन्तिका, बृहस्पतेश्वर, स्वप्नेश्वर तथा समर्थ रामदास द्वारा स्थापित श्री हनुमानजी का मन्दिर है।

गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं।दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। प्रचलित है कि भारतवर्ष में यह एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जहां ताजी चिता भस्म से प्रात: 4 बजे भस्म आरती होती है। उस समय पूरा वातावरण अत्यंत मनोहारी एवं शिवमय हो जाता है।महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। यह एक अनूठी विशेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में ही पाया जाता है।

श्रावण मास तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां पर विशेष उत्सव होते हैं। श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को महाराजाधिराज महाकालेश्वर की सवारी निकाली जाती है। पूरे शहर को इस अवसर पर बंदनवारों एवं बल्बों से सजाया जाता है। यह सवारी मंदिर प्रांगण से निकलकर शिप्रा नदी के तट तक जाती है। विशेषता है कि मुस्लिम समुदाय के बैंड-बाजे वाले भी श्री महाकाल की सवारी में अपना नि:शुल्क योगदान देते हैं। यह हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द का अनूठा उदाहरण है। 

महाकाल शहर और उसके लोगों के जीवन पर पूरी तरह से  हावी है।सभी अपने आधुनिक व्यस्तताओं के व्यस्त दिनचर्या के बीच भी श्रद्धा, विश्वास और पिछली परंपराओं के साथ एक अटूट संबंध रखते हैं। महाशिवरात्रि के दिन, मंदिर के पास एक विशाल मेला लगता है, और रात में पूजा होती है।

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